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. चतुर्दश अध्यायः
ऋद्धि तो देखो। इन के आगे आकाश में धर्म-चक शोभायमान ... है, सर पर तीन छत्र हैं, इन के दोनों ओर तेजोमय श्रेष्ठ चंवर .
अवस्थित हैं, आकाश के समान स्वच्छ, स्फटिक, मणि के बने हुए पादपीठ वाले सिंहासन पर ये विराजमान हैं। पत्र, पुष्प और पल्लव से शोभित, छन्त्र, ध्वज और पताका से युक्त अशोक वृक्ष प्रकट हो रहा है। इन के पीछे मस्तक के पास देदीप्यमान भामण्डल (गोलाकार प्रकाशपुज) कितना सुन्दर लग रहा है मां! जरा ध्यान से अपने पुत्र के अध्यात्म वैभव को देखो। - हर्प से रोमानित और आनन्दातिरेक के कारण निस्सृत अश्रुजल से परिपूर्ण नयनों से अपने पुत्र के अलौकिक अध्यात्म वैभव और ऐश्वर्य को निहार कर माता मरदेवी प्रानन्द-सागर में निमग्न हो गई। उसने सोचा-मेरा पुत्र तो बड़ा सुखी है । देवी,देवता भी इस
की सेवा में नतमस्तक खड़े हैं,मनुप्यों का तो कहना ही क्या है ? मैं ... तो व्यर्थ में ही इस के अनिष्ट की आशंका कर रही थी। इस से
बढ़ कर और कौन सुखी होगा ? मैं सोचा करती थी, पुत्र ने कभी मेरी सार नहीं ली, अव समझी । ऐसे अानन्द-सरोवर में रह कर मला यह मुझे क्यों याद करने लगा? अच्छा चलती हूँ, पूछूगी जरूर, पुत्र कितना भी बड़ा क्यों न हो जाए, आखिर मां तो मां
ही रहती है.........इस प्रकार के विचारों में निमग्न मरुदेवी माता .. . प्रभु के दरवार में गई, पर वीतरागी प्रभु ने तो अांख उठाकर
अपनी जननी की ओर निहारा भी नहीं।
.. मां सन्न रह गई। उसे स्वप्न में भी प्राशा नहीं थी कि मेरा : पुत्र मुझे देखेगा भी नहीं । झट वापिस चल दी। और हाथी के होदे पर बैठी विचार करने लगी कि पुत्र-मोह में पागल होकर मैंने तो : अपने नयन भी खोलिए और उसने मुह उठा कर मेरी ओर देखा भी .