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द्वादश अध्याय
इस व्रत में वासना या तृष्णा को जरा भी छूट देने का अवकाश नहीं है । जैसे तम्बू रस्सो से कसा हुआ होने के कारण ही उसमें स्थित सामग्री एवं मनुष्यों को वर्षा से सुरक्षित रख सकता है, यदि उसकी एक रस्सी भी शिथिल पड़ जाए तो उसमें वर्षा का जल टपकने लगेगा । इसी तरह वासना या तृष्णा को भोगोपभोग के साधनों में किसी भी तरफ जरा-सी छूट दी गई तो उसका परिणाम यह होगा कि धीरेवीरे सारा जीवन काम-वासना के पानी से भर जायगा । अतः साधुसाध्वी के लिए स्त्री-पुरुष संसर्ग त्याग की बात ही नहीं, बल्कि विकारोत्पादक सभी तरह के भोगोपभोग का मन, वचन और शरोर से सेवन करने, करवाने और करते हुए को अच्छा समझने का निषेध किया गया है ।
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अपरिग्रह
। दुनिया में स्थित पुद्गलों
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"परिगृह्णातीति परिग्रहः” इस परिभाषा से परिग्रह का अर्थ होता हैं - जो कुछ ग्रहण किया जाय को दो तरह से ग्रहण किया जाता है, १- द्रव्य से और २-भाव से । धन-धान्य प्रादि स्थूल पदार्थों को हम द्रव्य रूप से ग्रहण करते हैं, इस लिए इसे द्रव्य परिग्रह कहते हैं और राग-द्वेष एवं कषायादि भाव परिणति से हम कर्म पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, अतः उसे ( कषायादि भावों एवं कर्मों को) भाव परिग्रह कहते हैं । द्रव्य परिग्रह के ९ भेद किए गए हैं - १- क्षेत्र, २ वास्तु : हिरण्य, ४- सुवर्ण, ५-घन, ६-धान्य, ७- द्विपद, ८ चतुष्पद और ९ - कुप्य पदार्थ । इन का अर्थ इस प्रकार है१- क्षेत्र कृषि के उपयोग में आने वाली भूमि को क्षेत्र कहते हैं ।
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वह सेतु और केतु के भेद से दो प्रकार का कहा गया है नहर, कुआं श्रादि कृत्रिम साधनों से सींची जाने वाली भूमि को सेतु और मात्र
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