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प्रश्नों के उत्तर
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संप्रदाएं इस बात को स्वीकार करती हैं। फिर भी मान्यता में थोड़ा-सा अन्तर है । स्थानकवासी एवं तेरहपंथी साधु मुखवस्त्रिका मुंह पर बांधते हैं, परन्तु मूर्ति पूजक साधु उसे मुंह पर नहीं बांधते । उनके यहां मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने की परम्परा है । वे भी इस बात को मानते हैं कि खुले मुंह नहीं बोलना चाहिए । बोलते समय या उबासी आदि लेते समय मुख पर मुखव स्त्रिका लगा लेनी चाहिए । इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्वेताम्बर परम्परा में तीनों संप्रदाएं मुखवस्त्रिका रखने के उद्देश्य में एकमतः हैं। तीनों संप्रदायों की यह मान्यता है कि खुले मुँह बोलने से जीवों. की हिंसा होती है और खुले मुंह बोली जाने वाली भाषा सावद्य भाषा कहलाती है । ग्रन्तरं केवल इतना ही है कि स्थानकवासी और तेरहपंथी * साधु मुखवस्त्रिका को सदा मुख पर बांधे रखते हैं और मूर्तिपूजक उसे मुख पर न बांधकर हाथ में रखते हैं और बोलते समय लगाना ग्रावश्यक मानते हैं ।
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यह हम ऊपर देख चुके हैं कि मुखवस्त्रिका को हाथ में रखने से जीवों की भली-भांति यतना नहीं होती । कई बार प्रमादवश या परिस्थितिवश खुले मुंह बोला जाता है और वर्तमान में जो साधु हाथ में मुरुवस्त्रिका रखते हैं, उनमें से बहुत ही कम साधु उसका बोलते समय उपयोग करने वाले मिलेंगे । देखा यह जाता. है कि अधिकांश साधु खुले मुंह बोलते रहते हैं । वे मुखवस्त्रिका लगाकर बोलने का विवेक नहीं रखते। अतः मुखवस्त्रिकां सदा लगाए रखने में लाभ ही है । और मुखवस्त्रिका शब्द से भी यह
* तेरहपंथ के साधुओं की मुखवस्त्रिका स्थानकवासी साधुओं की मुखवस्त्रिका की अपेक्षा लम्बाई में ज्यादा और चौड़ाई में कम होती है ।