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प्रश्नों के उत्तर
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की विचारधारा गंभीरता पढ़ने लगी । वे सोचने लगे कि यह शरीर विनाशशील है, अनित्य है, नम्वर है, मलमूत्रादि निकृष्ट पदार्थो का भण्डार है । कपूर, केसर, कस्तूरी और चन्दन कोई भी सुगन्धित पदार्थ इस के सम्पर्क में या जाए तो वह भी दूषित हो जाता है, सब पदार्थों को यह दुर्गन्धमय बना डालता है। कितना घृणास्पद है, यह शरीर ?
इस शरीर की रक्षा के लिए मनुष्य अनेकविध यत्न करता है । रोगों से उन्मुक्त रखने के लिए नाना प्रकार की औषधियों का सेवन करता है किन्तु फिर भी यह साथ छोड़ जाता है, एक दिन मृत्यु की गोद में सो जाता है । वे लोग धन्य हैं, जो इस से धार्मिक लाभ उठाते हैं। वे तपस्वी मुनीश्वर धन्य हैं जो इस शरीर की अनित्यता तथा सारता जानकर मोक्षफलदायक तप द्वारा इस का उपयोग करते हैं । इस प्रकार की अध्यात्म विचारधारा का प्रबल वेंग जब उत्पन्न हुआ तव भरत जी महाराज धीरे-धीरे भावों की विशुद्धता से इतने ऊंचे उठ जाते हैं कि ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और ग्रन्तराय इन चतुविधघातिक कर्मों का क्षय करके केवल - ज्ञान को उपलब्ध कर लेते हैं। आदर्शभवन से सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बनकर ही बाहिर निकलते हैं ।
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स्थानकवासी परम्परा इस प्रकार भरत महाराज को बादर्शभवन में केवली वन जाने की मान्यता में विश्वास रखती है, किन्तु दिगम्बर परम्परा इस वात को मानने से इन्कार करती हैं । उस के विश्वासानुसार जब तक मनुष्य दिगम्बर साधु न बने, नग्नत्व स्वीकार न करे तब तक केवल - ज्ञान तो क्या उसे साधुत्व भी प्राप्त नहीं हो सकता। दिगम्बर परम्परा व्यक्ति को साधु बनाने के लिए सर्वप्रथम दिगम्बर बनाती है किन्तु स्थानकवासी परम्परा केवल