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चतुदश अध्याय
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'चाहिए तो यह था कि गोशालक अपने गुरुदेव से क्षमा मांगता, किन्तु भगवान के वचनों का उस पर उल्टा ही परिणाम हुआ। वह शान्त होने की वजाय अधिक उत्तेजित हो गया, श्रीर उसने क्षण भर में अपनी तेजोलेश्या (तपोजन्य तेज - शक्ति) को भ गवान के ऊपर छोड़ दिया। उसे अटल विश्वास था कि इसके प्रयोग से वह भगवान का अन्त कर देगा, किन्तु उस की धारणा निष्फल हुई । पर्वत से टकराई हुई वायु की भांति गोशालक द्वारा छोड़ी गई तेजोलेश्या भगवान से टकरा कर चक्र काटती हुई ऊंची चढ़ कर पुनः वापिस गोशालक के शरीर में ही प्रवेश कर गई । तेजोलेश्या के शरीर में प्रविष्ट होते ही गोशालक जलने लगा । अन्त में, निर्विष नाग की भांति निस्तेज हालत में गोशालक वहां से चला गया ।
गोशालक ने भगवान महावीर पर जो तेजोलेश्या छोड़ी थी. यद्यपि उस से तात्कालिक हानि नहीं हुई पर उस की प्रचण्ड ज्वालाएं अपना थोड़ा सा प्रभाव महावीर पर अवश्य कर गई । उन के ताप से प्रभु के शरीर में पित्त ज्वर हो गया । परिणामस्वरूप भगवान को खून के दस्त याने लगे । रक्त के अधिक स्राव से भगवान का शरीर काफी शिथिल और कृश हो गया। केवल - ज्ञान होने के पश्चात् पहली बार भगवान को यह तेजोलेश्याजनित उपसर्ग सहन करना पड़ा । ऐसी मान्यता है, स्थानकवासी परम्परा की, किन्तु दिगम्बर परम्परा भगवान के तेजोलेश्याजनित इस उपसर्ग को स्वीकार नहीं करती। उस का विश्वास है कि सर्वज्ञत्व मोर सर्वदशित्व जैसी उच्चतम प्रात्मिक भूमिका पर विराजमान तीर्थंकर भगवान महावीर को यह भीषण वेदना क्यों ? ऐसी लोमहर्षक वेदना ऐसी वीतराग आत्मा को नहीं हो सकती, किन्तु स्था