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चतुर्दश अध्याय
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था - बारह फण वाला सांप । इस स्वप्न का फल भद्रबाहु स्वामी ने बताया कि बारह वर्ष का दुष्काल पड़ेगा | दुष्काल को उन घड़ियों में उन्होंने महाराज चन्द्रगुप्त को दीक्षा दी और उसके बाद दक्षिण में करर्णाटक की प्रोर विहार कर गए। भद्रवाहु स्वामी के करर्णाटक देश की ओर चले जाने पर संघ का नेतृत्व श्री स्थूलभद्र जी महाराज ने सम्भाला ।
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इतिहास बतलाता है कि भद्रवाह स्वामी के समय एक भयं कर दुष्काल पड़ा । इस दुष्काल से जैन-जगत को बहुत नुक्सान उठाना पड़ा । भिक्षा-जीवी जैन साधु भिक्षा के अभाव में कैसे जीवित रहते ? बहुत से जैन - साधु इस दुष्काल की भेंट हो गए । तथा जो साधु शेष रहे वे भी दुर्बल होने लगे । शारीरिक शिथि
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लता के कारण उन के शास्त्रीय ज्ञान का ह्रास होने लगा । उस
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युग में पुस्तकें तो थी ही नहीं, अतः शास्त्र- स्वाध्याय मौखिक ही हुआ करता था । प्राचार्य अपने शिष्य को स्मरण करा दिया करते थे और शिष्य आगे अपने शिष्य को कण्ठस्थ करा दिया करते थे, इसी क्रम से अर्थात् गुरु-परम्परा से. आगमों का स्वाध्याय होता था । किन्तु देश में दुष्काल पड़ जाने से साधुओं को प्रहार मिलना . कठिन हो गया । श्रहार यादि के न मिलने से तथा उन की स्मरण शक्ति का दुर्बल हो जाना जिस का परिणाम यह हुआ कि साधुत्रों को कण्ठस्थ विद्या भूलने लगी । अन्त में, जैनेन्द्र प्रवचन के इस ह्रास से खेद खिन्न हो कर संघ- हितैषी, और दीर्घदर्शी मुनिराजों ने पाटलीपुत्र (पटना) में एक मुनि सम्मेलन बुलाया । उस सम्मेलन का प्रधान श्री स्थूलिभद्र जी म० को बनाया गया ।
साधुयों के शरोर स्वाभाविक था ।
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