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___ चतुर्दश अध्याय
७१५ : सर्वाधिक मान प्राप्त है । हां, यह सत्य है कि जो टीकांश या भाप्यांश मूल प्राग़मों के अनुकूल है, उस से इसे कोई विरोध भी नहीं है। सत्य तो यह है कि आगम-प्रतिकूल किसी भी व्याख्या या भाष्य प्रादि के लिए इस परम्परा में कोई स्थान नहीं है। . .:
. दूसरा अन्तर है-मुखवस्त्रिका का। स्थानकवासी परम्परा वायु-कायिक जीवों की रक्षा के लिए मुख पर मुखवस्त्रिका बांधने का विधान करती है । और उसका विश्वास है कि सदा मुख पर मुखवस्त्रिका लगाए विना वायुकायिक जीवों की सुरक्षा नहीं हो सकती, किन्तु श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परम्परा ऐसा विश्वास नहीं रखती। इस परम्परा के लोग हाथ में एक वस्त्रखण्ड रखते हैं, जिसे ये मुखवस्त्रिका कहते हैं । वस्तुतः उसे मुखवस्त्रिका की बजाय यदि हस्तवस्त्रिका कहा जाए तो अधिक उपयुक्त और बुद्धि-संगत है । इस. का कारण यही है कि वह सदा हाथ में रखी जाती है।
उसे कभी मुख पर नहीं बांधा जाता है। ... मुखवस्त्रिका मुख पर बांधने पर ही वायुकायिक जीवों की
संरक्षिका बन सकती है। इस सम्बन्ध में अनेकों शास्त्रीय प्रमाण उपस्थित किए जा सकते हैं, किन्तु यहां उनके लिए न स्थान है, और नाँही उन की यहां अावश्यकता है। क्योंकि यहां तो दोनों परम्पराओं की आचार-विचार सम्वन्धी भिन्नता का ही दिग्दर्शन. कराना इष्ट है । और दूसरे, इसी पुस्तक के १२वें अध्याय में इस सम्बन्ध में आवश्यक प्रकाश डाला..जा चुका है । अतः जिज्ञासुओं को वह अध्याय देख, लेना चाहिए। .. तीसरा अन्तर मूर्तिपूजा का है। स्थानकवासी. परम्परा. मूर्तिपूजा को अशास्त्रीयं मानती है । उस का विश्वास है कि जैनागमों में मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में कहीं भी कोई विधान नहीं है। किसी भी .