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प्रश्नों के उत्तर
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स्त्री के रूप में कभी केवली या तीर्थंकर नहीं बन सकती, किन्तु स्थानकवासी परम्परा का ऐसा विश्वास नहीं है । यह परम्परा कहती है कि नारी भी पुरुष की भांति प्राध्यात्मिक उन्नति कर सकती है, साध्वी वनकर ग्रहिंसा की विराट् साधना द्वारा घातिक कर्मों का क्षय करके केवली वन सकती है, तीर्थंकर पद के योग्य पूर्व भूमिका तैयार करके समय थाने पर तीर्थंकर पद भी प्राप्त कर सकती है। नारी में जब पुरुष की भांति चेतना है, विचारणा है, अध्यात्मिक जागरणा है तो उसके प्राध्यात्मिक विकास पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध कैसे लग सकता है ? इसीलिए स्थानकवासी परम्परा इस अवसर्पिणीकालीन २४ तीर्थंकरों में से १९ वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ को नारी रूप से स्वीकार करती है । किन्तु दिगम्बर लोग भगवान मल्लिनाथ को पुरुष रूप से हो देखते हैं । इन के यहाँ इन का स्त्रीत्व किसी भी प्रकार मान्य नहीं है ।
यह सत्य है कि स्थानकवासी परम्परा यह स्वीकार करती है कि भगवान मल्लिनाथ स्त्री थे, किन्तु साथ में वह यह भी मानती है कि स्त्री का तीर्थंकर होना श्रवसपिरंगीकालीन १० ग्राश्चर्यों में से एक ग्राश्चर्य है । जो घटना अभूतपूर्व हो, पहले कभी न हुई हो प्रोर लोक में जो विस्मय और आश्चर्य की दृष्टि से देखी जाती हो ऐसी घटना को जैन परिभाषा में श्राश्चर्य कहा गया है। अवसर्पिरंगी काल में एसे दस ग्राश्चर्य हुए हैं । उन में भगवान मल्लिनाथ का स्त्री रूप से तीर्थंकर होना भी एक आश्चर्य है । त्रिलोक में निरुपम अतिशय और अनन्त महिमा धारण करने वाले प्रायः पुरुष ही हुआ करते है और वही तीर्थ की स्थापना किया करते हैं, यह सत्य है किन्तु अनन्त अवसर्पिरिणयां और अनन्त उत्सर्पिरिणयां व्यतीत हो.