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प्रश्नों के उत्तर
के लिए साधु वनना जरूरी है । साधु बने बिना मुक्ति की प्राप्ति असंभव है, किन्तु स्थानकवासी परम्परा कहती है कि यह सत्य है आत्मशुद्धि के लिए साधु-जीवन में जो साधना हो सकती है वह गृहस्थ जीवन में नहीं हो सकती। क्योंकि साधु-जीवन सांसारिक प्रपंचों से सर्वथा अलग थलग होने के कारण ग्रहिसा, संयम और तप की त्रिवेणी में अधिक गोते लगा सकता है | साधना करने का जितना अवसर साधु को प्राप्त हो सकता है, उतना गृहस्थ को नहीं । गृहस्थ पर अनेकों पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्व हैं, उसे परिवार के पालन-पोषणार्थं ग्राजीविका आदि अनेकों चिन्ताएं घेरे रहती हैं । तथापि मुक्ति किसी वेप विशेष से बन्धी हुई नहीं होती है, जिस जीवन में साधु-भाव ग्रा जाए, वही जीवन मुक्ति को पा सकता है, फिर वेप चाहे गृहस्थ का हो या साधु का मुक्ति के साथ वेष का कोई सम्बन्ध नहीं रहता है । वहां तो संयम की साधना चाहिए ।
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...... सभी गृहस्थ बुरे होते हैं, ऐसी बात नहीं है । कई गृहस्थ साधुत्रों से भी अच्छे होते हैं। जिन साधुत्रों के जीवन में साधुता नहीं है, केवल जिन्होंने साधु का वेष पहन रखा है, किन्तु ईषा, द्वेष, की ग्राग में सदा जलते रहते हैं, कामना और वासना के दास बने हुए हैं, ऐसे भेषधारी साधु व्यक्तियों से वे गृहस्थ अच्छे हैं जिनका जीवन सात्त्विक है, हिंसा, असत्य, चोरी, दुराचार और परिग्रह से दूर रहता है। भगवान महावीर ने भी कहा है:
सन्ति एगेहि भिक्खूहि, गारत्थ- संजमुत्तरा । गारत्थेहिं य सव्वेहि, साहवो संजमुत्तरा ॥
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- उत्तरा० अ० ५-२०.