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........: चतुर्दश अध्याय
७३७ 1. साधक वस्त्रों का परित्याग नहीं करता, सर्वथा नग्नत्व स्वीकार
नहीं करता, तब तक वह मुक्ति की साधना नहीं कर सकता, साधु ..... नही बन सकता। गम्भीरता से यदि विचार किया जाए तो इस ...
मान्यता में कोई भी सार प्रतीत नहीं होता। क्योंकि नग्नत्व ही यदि
मुक्ति का कारण हो फिर तो बहुत से अनाथ, जिन को वस्त्र नहीं : मिलता, सदा नंगे रहते हैं; उन को मुक्ति अवश्य मिल जानी . . चाहिए । गाय, भैंस, कुत्ते और गधे आदि सभी पशु भी आजीवन नग्न रहते हैं । इन का नग्नत्व भी मुक्ति का साधक होना चाहिए। पर ऐसा दिगम्बर परम्परा को भी स्वीकार नहीं है । क्यों ? इसीलिए, किं वहां ममत्व का त्याग नहीं है.। भले ही वह जीव नग्न रहते हैं, किन्तु वे ऐसा विवशता से करते हैं । वहाँ मनसा ममत्व .....
का त्याग नहीं होता । वस्तुतः ममत्व का अभाव ही मुक्ति का सा• धन है, सोपान है । वस्त्र हों, या न हों, इस से कुछ फर्क नहीं .
पड़ता। आवश्यकता ममत्व के त्याग की है। प्रत्यक्ष से नग्नत्व - स्वीकार कर लेने पर भी यदि शरीर से ममत्व चल रहा है तव भी मुक्ति दूर रहती है । इसीलिए स्थानकवासी परम्परा का विश्वास है कि मुक्ति की प्राप्ति के लिए वस्त्रों का सर्वथा त्याग या विल्कुल नग्नत्व अपेक्षित है, ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है । वस्तुतः जिस
आत्मा ने ममतारूपी वस्त्रों को विल्कुल उतार दिया है, जोवन को निर्मम बना लिया है वही आत्मा मुक्ति का हकदार है । मुक्ति प्राप्ति . . में वस्त्र बाधक नहीं बनते । द्रव्य-नग्नत्व की अपेक्षा भाव-नग्नत्व (ममता का अभाव) की आवश्यकता है।
...... ... गृहस्थ वेष में मुक्ति - दिगम्बर परम्परा का विश्वास है कि मुक्ति को प्राप्त करने