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चतुर्दश अध्याय केवली का कवलाहार, केवली का नीहार-शौच जाना, स्त्री की मुक्ति, शूद्र की मुक्ति, वस्त्रधारी को मुक्ति आदि सभी सिद्धान्तों को सदा स्वीकार करते हैं। किन्तु आज की दिगम्बर परम्परा का .. इन सिद्धान्तों पर किञ्चित् भी विश्वास नहीं है । यदि यह परम्पराजिनकल्पी परम्परा का ही रूपान्तर या ध्वंसावशेष होती तो इस . की तथा जिनकल्पी परम्परा की सैद्धान्तिक मान्यताओं में कोई अन्तर या मतभेद न होता । उक्त सिद्धान्तों में अन्तर स्पष्ट रूप से उपलब्ध होता है । अतः आज की दिगम्बर परम्परा को जिन- .... कल्पी परम्परा का ध्वंसावशेष नहीं कहा जा सकता। दोनों का पारस्परिक कोई भी सम्बन्ध नहीं है । इसके अतिरिक्त, जिनकल्पी परम्परा में तीर्थंकरों की मूर्तिपूजा को कोई स्थान नहीं था किन्तु आज की दिगम्वर-परम्परा सर्वथा मूर्तिपूजक है । यह भिन्नता भी दोनों को सर्वथा विभिन्न प्रकट कर रही है। . . . ... प्रश्न--स्थानकवासी परम्परा और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में आचार-विचार सम्बन्धी कहां-कहां अन्तर पाया जाता है ? . . . . . ... ... ... उत्तर-स्थानकवासी और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक इन दोनों परम्परागों में आचार-विचार-सम्बन्धी अनेकों मतभेद हैं । उन सव , . का यदि यहां उल्लेख करने लगें तो काफी विस्तार हो जाएगा। अतः अधिक सूक्ष्मता में न जा कर स्थूल दृष्टि से ही उन मतभेदों .. पर विचार किया जाएगा। ... .. ... .... ....
के केवली का कवलाहार" आदि सिद्धान्तों की चर्चा आगे चलकर "स्थानकवासी और दिगम्बर-परम्परा में क्या मतभेद है ?" इस प्रश्न के उत्तर में की जाएगी।