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चतुर्दश अध्याय
७३१ है। स्त्रीलिंग शब्द स्त्रीत्व का बोधक है। स्त्रीत्व तीन प्रकार का होता है- १- वेद, २-शरीराकृति और ३-वेष | यहां पर शरीराकृति रूप स्त्रीत्व का ग्रहण किया गया है । क्योंकि वेद [ स्त्री को पुरुष की कामना और पुरुष को स्त्री की कामना का होना ] के उदय में तो कोई भी जीव सिद्ध नहीं हो सकता । रही वेष की वात, उसका ग्रात्म-कल्याण के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है । सारांश यह है कि स्त्रीलिंग सिद्ध उस सिद्ध को कहते हैं जो स्त्री के प्रकार में होता है । स्त्रीलिंग में सिद्ध बन जाने की मान्यता स्थानकवासी परम्परा की है, किन्तु दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती । दिगम्बर परम्परा को विश्वास हैं कि पुरुष ही मुक्ति का अधिकारी है, स्त्री मुक्ति में नहीं जा सकती । इस में उस की दलील यह है कि स्त्री पुरुष से हीन है । अतः पुरुष से हीन होने के कारण नारी मुक्त नहीं हो सकती । किन्तु ऐसा विश्वास सर्वथा भ्रान्ति-मूलक है । क्योंकि नारी को पुरुष से सर्वथा हीन मान लेना ठीक नहीं है। पुरुषों में जैसे आत्मा निवास करती है, वैसे ही नारी में भी श्रात्मा की अवस्थिति है । चेतना, शक्ति, बुद्धि, धीरता आदि बातों में नारी पुरुष से कभी पीछे नहीं रही है। नारी जीवन का उज्ज्वल इतिहास इस सत्य का सर्वथा पोषक रहा है | अध्यात्म शक्ति की सजीव प्रतिमा महासती चन्दन - बाला, सीता, द्रौपदी, दमयन्ती, मृगावती प्रादि अनेकों ऐसे नारी-जीवन हमारे सामने आते हैं, जिन्होंने प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने धर्म का दृढ़ता तथा स्थिरता से पालन और संरक्षरण किया है । अध्यात्मबाद के सभी चमत्कार इनके चरणों में लोटते रहे हैं। इसके प्रति
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xस्त्रीणां न मोक्षः, पुरुषेभ्यो हीनत्वात्, नपुंसकादिवदिति