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चतुदेश अध्याय . .
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और मल ये ग्यारह परोषह. केवली के भी होते हैं । दिगम्बर - परम्परा के लोग ऐसा समझते हैं कि मोहनीय कर्म का प्रभाव ..जर्जरित हो जाता है, मोहनीय के नष्ट हो जाने पर वेदनीय कर्म
का कोई वश नहीं चलता है। किन्तु ऐसा समझना ठीक नहीं है। . . कर्म-सिद्धान्त के द्वारा यह बात सिद्ध नही हो पाती । कर्म-सिद्धान्त के .
अनुसार मोहनीय कर्म के नष्ट होने पर तज्जन्य राग-द्वेष परिणति का अभाव हुया करता है किन्तु वेदनीय कर्म की सत्ता में वेदनीय . . कर्मजन्य वेदना का अभाव कैसे हो सकता है ? यदि ऐसा ही होता : हो तो ज्ञानावरणीय, दर्शनांवरणीय, अन्तराय और मोहनीय इन
चार घांतिक कर्मों के नाश के साथ ही वेदनीय कर्म भी समाप्त ... हो जाना चाहिए था, पर वह केवल ज्ञान के होने के अनन्तर भी . ... कायम रहता है । इस का उदय तो सयोगी और अयोगी गुण-स्थान ..
में भी आयु के अन्तिम समय तक वरावर बना रहता है। इस .. . प्रकार इस को सत्ता मान लेने पर भी तत्सम्बन्धी वेदनाओं का ..
अभाव मानना किसी भी तरह संगत नहीं कहा जा सकता। अंतः ... केवली के साथ वेदनीय कर्म की सत्ता मान लेने के अनन्तर क्षुधा. वेदनीय को शान्त करने के लिए केवली का आहार ग्रहण करना ।
परीषह है । कोई ताड़न करे, तर्जन करे फिर भी उसे सेवा ही मानना वध . परीपह है । किसी भी रोग से. व्याकुल न होकर समभावपूर्वक उसे सहन
करना रोग परीपह है । तृण आदि की तीक्ष्णता या कठोरता अनुभव हो तो - मृदु-शय्या के सेवन सरीखा उल्लास रखनातृणस्पर्श परीषह हैं। चाहे.. कितना ही शारीरिक, मल हो फिर भी उससे उद्वेग न पाना और स्नान .. करने की इच्छा न करना मल पंरीषह कहलाता है। .............
* एकादश जिने । तत्त्वार्थ सूत्र अ० ९/११ : .........