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प्रश्नों के उत्तर
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समय ने फिर कर्बट ली। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद वैदिक परम्परा ने फिर से सर उठाया और आचार्य शंकर के समय में तो यह परम्परा अपने पूर्ण यौवन पर आ गई थी। इस का फल यह हुआ कि जन्मना जातिवाद के सिद्धान्त की पायः सर्वत्र प्रतिष्ठा हो गई। आगे चलकर स्वयं जैन भी इस के प्रभाव से न बच सके । आज के दिगम्बर जेनों में जो "शूद्र की मुक्ति नहीं होती, हरिजन दिगम्बर जैन मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकता - आदि भ्रान्त धारणाएं पाई जाती हैं यह सब वैदिक परम्परा का ही प्रभाव समझना चाहिए। क्योंकि जैनधर्म तो जन्मना जातिवाद का सदा खण्डन करता आया है । और संसार को सदा उपदेश देता है कि व्यक्ति कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता हैx । तथापि जैनों में जो जन्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और जन्म से शूद्र होने की भावना आ गई हैं, तथा छूआछूत, अस्पृश्यवाद आदि जो मान्यताएं दृष्टिगोचर हो रही हैं, यह सब वैदिक परम्परा का ही तात्कालिक प्रभाव प्रतीत होता है। क्योंकि वैदिक पपम्परा कहती हैन स्त्रीशूद्रो वेदमधीयताम्, अर्थात् स्त्री और शूद्र को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है । इस से स्पष्ट है कि जो परम्परा स्त्री, शूद्र के वेद. पढ़ने का भी निषेध करती है, वह परम्परा उन्हें मुक्ति प्रदान कैसे कर सकती है ? इस के विपरीत जैन परम्परा कहती है कि प्रत्येक
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xकम्णा भणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तियो । बइसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कंम्मणा ॥
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- उत्तराध्ययन सूत्र श्र० २५.