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प्रश्नों के उत्तर
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भो स्वीकार करना पड़ेगा । केवली का कवलाहार ग्रहण करने की बात मानने पर केवली का केवल ज्ञान सर्वथा सुरक्षित रहता है उस में किसी भी प्रकार की कोई हानि नहीं पहुँच सकती ।
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केवली का नीहार विष्ठा तथा मूत्र के उत्सर्ग का नाम
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नीहार है । स्थानक वासी परम्परा की मान्यता है कि केवली के नीहार भी होता है । दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। उस का विचार है कि केवली को शौच जाते समय स्वयं को घृणा होती है और उसे देख कर दूसरों को घृणा होती है । इसलिए केवली का नीहार मानना ठीक नहीं है, किन्तु स्थानकवासी परम्परा कहती है कि केवली तो वीतराग होते हैं, राग द्वेष का उन के यहां सर्वथा अभाव होता है । राग द्व ेष के प्रभाव के कारण केवली को घृणा होती ही नहीं है । रही दूसरे लोगों की बात, उसकी भी कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उनके अतिशयविशेष के कारण वे नीहार करते समय किसी को दिखाई ही नहीं देते हैं । भगवान के ३४ अतिशयों में "भगवान का आहार और नीहार प्रच्छन्न होता है, वह चर्म चक्षु वाले को दिखाई नहीं देता " यह पांचवां अतिशय है अतः केवली का नीहार मानना किसी भी तरह प्रसंगत नहीं 'ठहरता है ।
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स्त्रीलिंग में मुक्ति
स्थानकवासी परम्परा की मान्यता है कि जिस प्रकार पुरुष मोक्ष का अधिकारी होता है वैसे स्त्री भी मोक्ष की अधिकारिणी है । पुरुष की भांति नारी भी मोक्ष में जाती है । इसीलिए स्थानक वासी परम्परा ने १५ प्रकार के सिद्धों में स्त्रीलिंग सिद्ध भी माना