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प्रश्नों के उत्तर
जैनग्रागम में मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रतिमापूजन का उल्लेख नहीं मिलता । मोक्ष के साधन तो दान, शील, तप और भावना है या सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की त्रिवेणी है । इन मोक्ष-साधनों में मूर्तिपूजा को कोई स्थान नहीं है । ग्रतः स्थानकवासी परम्परा मूर्तिपूजा को प्राध्यात्मिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं देती । प्रत्युत इस प्रवृत्ति को मिथ्यात्व की पोषिका प्रवृत्ति स्वीकार करती है | इसके विपरीत, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा मूर्तिपूजा का विधान करती है और उसे श्रागमानुकूल मानती है । तथा इसके द्वारा वह ग्रात्मकल्याण की कल्पना करती है । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । मूर्तिपूजा का आत्मकल्याण के साथ कोई संम्बन्ध नहीं है । मूर्तिपूजन की अवास्तविकता तथा अनुपयोगिता का वर्णन इसी पुस्तक के "भाव-पूजा" नामक अध्याय में किया जाने वाला है । पाठक उसे देख सकते हैं । संक्षेप में यदि कहें तो इतना ही कहा जा सकता है कि स्थानकवासी परम्परा ग्रात्मसाक्षात्कार के लिए किसी प्रतीक की उपासना की न तो आवश्यकता अनुभव करती है, और नाँहीं उसे आत्मसाक्षात्कार का साधन स्वीकार करती है ।
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चतुर्थ अन्तर तीर्थयात्रा का है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा पावापुरी, पालीताणा आदि स्थानों को तीर्थरूप मानती है, और वहाँ यात्रा करना धर्म स्वीकार करती है, किन्तु स्थानकवासी परम्परा तीर्थयात्रा में कोई श्रद्धा या आस्था नहीं रखती है । उसका विश्वास है कि तीर्थ स्थानों पर चक्र लगाने से ग्रात्मकल्याण नहीं हो सकता | तीर्थयात्रा ही यदि आत्मकल्याण का कारण होती तो तीर्थों पर रहने वाले पशु, पक्षी आदि प्राणियों का सर्वप्रथम ग्रात्मकल्याण होना चाहिए था । क्योंकि वे तो सदा वहीं घूमते रहते हैं