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चतुर्दश अध्याय
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आचार्य श्री वल्लभविजय जी हैं । इनके द्वारा लिखित पत्र की कुछ पंक्तिएं देखिए
.. मुंह पत्ति विषे हमारा कहना इतना ही है कि मुँहपत्ति बाँधनी अच्छी है और घणे दिनों से परम्परा चली आई है। इस को लोपना अच्छा नहीं है । हम बंधरणी अच्छी जानते हैं, परन्तु हम डिए लोक में से मुंहपत्ति तोड़ के निकले हैं, इस वास्ते हम बंध नहीं सकते और जो बंधनी इच्छीए तो यहां बड़ी निन्दा होती. है...... ।
पत्र की ये पंक्तिएं मुख पर मुखवस्त्रिका बांधने के सम्बन्ध में कितनी श्रद्धा और श्रास्था अभिव्यक्त कर रही हैं ? यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है । पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यदि मुखवस्त्रिका का मुख पर बांधना अशास्त्रीय होता, और यह श्री विजयानन्द जी के पूर्व कथनानुसार लवजी के मस्तिष्क की उपज होती तो इस पत्र में स्वयं विजयानन्दसूरि जी उसका समर्थन क्यों करते ? इस पत्र में तो उन्होंने यहां तक मान लिया है कि हम मुखवस्त्रिका बांधना स्वयं अच्छा मानते हैं और स्वयं भी उसे बांधने को तैयार हैं, किन्तु क्या करें ? लोक लब्जा के कारण ऐसा करना हमारे लिए कठिन है । वस्तुतः सत्यता छिपी नहीं रह सकती, वह तो कभी न कभी और किसी न किसी रूप में ज़वान पर आ ही जाती है । श्री विजयानन्द जी सूरि भले हो द्वेषवश स्थानकवासी परम्परा का उत्पत्ति - समय वीर सम्वत् १७०९ माने और यह कहें कि तभी से मुख पर मुखवस्त्रिका बांधनी आरंभ हुई है, किन्तु इन के ऐसा कह देने मात्र से वस्तुस्थिति की हत्या नहीं हो सकती । सूरि जी ने ऐसा लिखकर एक ऐतिहासिक भूल की है । तथा सचाई तो