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चतुर्दश अध्याय
७०१ - . देना उस समय अत्यावश्यक समझा :जाता था । इस, से मन्दिर के ...
पुजारियों की पांचों अंगुलिएं घी में थीं। उन्हें खूब माल-मलीदा - प्राप्त होता था । मूर्ति-पूजा द्वारा प्राप्त अन्नादि सामग्री ने दुष्काल में पीड़ित जैन-साधुओं को भी बड़ा प्रभावित किया। उन्होंने
देखा कि प्रतिमा-पूजन से खाने-पीने की सामग्री खूब हाथ.. लगती . है और विना याचना के ही काम बन जाता है। क्या ही अच्छा
हो, यदि इसी काम को अपना लिया जाए । फलतः उन्होंने भी तीथंकर भगवान की मूर्तियों के सामने अन्नादि सामग्री रखने से तथा द्रव्यादि की भेंट करने से धर्म होता है, ऐसा उपदेश करना प्रारंभ कर दिया । . .:. . . . . . . .:::.:::. . . - स्वार्थ में पाकर मनुष्य कई प्रकार की प्रवृत्तियों को जन्म दे डालता है । एक समय किसी क्रिश्चियन पोप ने भी एक पद्धति.... चलाकर खूब धन जुटाया था । वह कहा करता था कि जो मेरे से - प्रमाण-पत्र ले जाएगा, उस पर परमात्मा प्रसन्न होंगे और उस का - हर तरह ध्यान रखेंगे। हजारों भोले लोग उस की बातों में फंस .
गए । पोप भी बड़ा चतुर था । प्रमाण-पत्र का मूल्य वह व्यक्ति देख ___ कर निश्चित किया करता था। इस तरह उस ने लाखों पर हाथ
साफ किया । वस्तुतः स्वार्थ मनुष्य से बहुत कुछ अविवेक-पूर्ण काम करा देता है । स्वार्थ-परायण होकर ही उस समय मूर्ति-पूजा जैसे धर्म-विरुद्ध और शास्त्र-विरुद्ध कर्मों को धर्म कहना आरम्भ कर दिया गया। तथा तीर्थंकरों की प्रतिमानों के आगे जो चढ़ावा चढ़ता उसे अपने प्रयोग में लाकर अपना जीवन-निर्वाह करना प्रा
रम्भ कर दिया। यह सत्य है कि आगे चलकर यह पद्धति इसी रूप _में नहीं रहो । दुष्काल के दूर होने पर समय के साथ-साथ इस में ....