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: प्रश्नों के उत्तर
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था, फलतः उस समय याचक टिड्डीदल की तरह घूमने लगे । लोग तो स्वयं ग्रन्नाभाव के कारण दुःखी थे । फिर याचकों को वे ग्रन्न कहां से देते ? परन्तु याचक फिर भी नहीं मानते थे और पौनःपुन्येन अलख जगाते ही रहते थे । फल यह हुआ कि लोगों ने दुःखी होकर अपने घरों के द्वार वन्द रखने प्रारम्भ कर दिए। द्वार बन्द देखकर याचक निराश हो लौट जाते थे । वन्द द्वारों की समस्या का सामना उक्त दण्डधारी जैन साधुग्रों को भी करना पड़ा । ये भी जब भिक्षा को जाते तो इन्हें भी घरों के द्वार बन्द मिलते। तब इन्होंने इस समस्या का भी एक समाधान ढूण्ढ निकाला और वह यह कि घरों के बाहिर ही "धर्म - लाभ” का उच्च स्वर से प्रयोग करना चालू कर दिया । किवाड़ वन्द कर अन्दर बैठने वाले 'जैनों को अपने श्राने का बोध कराने के लिए "धर्म-लाभ” यह ग्रा वाज़ लगाने की एक रीति निकाली । श्रद्धालु लोग इस आवाज़ को सुनते ही द्वार खोल देते थे और इस तरह इन साधुत्रों को भी भोजन प्राप्ति का सुन्दर अवसर प्राप्त हो जाता था ।
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उस समय मूर्ति-पूजा का अच्छा खासा प्रचार था । लोग मन्दिरों में राम, कृष्ण आदि अवतार - पुरुषों की मूर्तियों को खूब सजाया, बनाया करते थे, उन्हें भोग भी लगाया करते थे । स्वयं भूखा रह लेना मंजूर था । किन्तु मन्दिर के भगवान को भोजन
- xसंयमशील साधु इस तरह की आवाज़ लगाने में दोष मानते थे । क्योंकि आवाज को सुनकर श्रद्धालु लोग साधु के योग्य भोजन की व्यवस्था कर देते हैं, जल, वनस्पति यदि संचित्त पदार्थों का यदि देय पदार्थ के साथ संयोग हो, तो उसे पृथक् कर देते हैं । इसलिए संयमशील साधू आवाज देने को इस सदोष और अशास्त्रीय प्रवृत्ति को काम में नहीं लाता है ।
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