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चतुर्दश अध्याय arrrrrrrr~~~~~~~~~~~~ जी, तथा श्री हुकमचन्द्र जी आदि शिष्य प्रमुख रूप से भाग ले रहे थे। आचार्य देव ने इन्हें मूर्तिपूजन जैसे अशस्त्रीय कार्य के अनुमोदन से अनेकों बार रोका, किन्तु जब ये नहीं माने तब पूज्य महाराज
ने इन संव को एकत्रित किया और उन्हें फिर समझाया कि स्थान- कवासी साधु के वेष में रह कर मूर्तिपूजा का प्रचार करना समाज
द्रोह है, गुरुद्रोह है, तथा ऐसे कृतघ्नता-जनित कार्य अनन्त संसार
के जन्मदाता हैं,अतः तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए । किन्तु जब ये ... प्राचार्यदेव के आदेशानुसार चलने को तैयार न हुए तब इन सबको
अपने संघ से निकाल दिया, और उन को स्थानकवासी वेष से अलग कर दिया। . .
. . . . . . . . .. . ... : विजयानन्द जी ने तथा उक्त. साधुओं ने स्थानकवासी वेष में रह कर जिनः स्थानकवासी श्रावकों को धर्म से भ्रष्ट किया था, : उनका साहाय्य पाकर विजयानाद जी ने एक नया सम्प्रदाय खड़ा. कर लिया । वह सम्प्रदाय श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय था। इस से पहले पंजाब में सभी स्थानकवासी परम्परा को मानने वाले ही लोग थे । कोई तीर्थंकरों की मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं रखता था। इससे स्पष्ट है कि पंजाब में श्वेताम्बर · मूर्तिपूजकों का सम्प्रदाय
बिल्कुल नवीन है, और इनका जन्म विक्रम सम्वत् १६२८ में . . हुआ है । ..... ... ... .. . .. ... .... . . . .
दिगम्बर परम्परा का प्रादुर्भाव-- : ... दिगम्बर परम्परा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर साहित्य में एक. कथा मिलती है । वह इस प्रकार है--- : : मज्जैनाचार्य पूज्य श्री अमरसिंह जी महाराज का जीवन-चरित्र" नामक , - पुस्तक देखनी चाहिए। .. "
नामक .