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चतुर्दश अध्याय
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"के शिष्य वज्रेङ्ग का वह शिष्य बन गया। दो वर्षो के अनन्तर लव जी अपने गुरु से कहने लगा कि भगवान महावीर ने साधु का जैसा प्रचार कहा है, आप उसका पालन क्यों नहीं करते ? इस पर गुरु ने कहा- पंचम काल में शास्त्रोक्त सभी बातों का पालन नहीं किया जा सकता । तत्पश्चात् लव जी ने कहा- तुम भ्रष्टाचारी हो, तुम मेरे गुरु नहीं हो। मै तो स्वयं ही फिर से साधु बनूंगा ! इस तरह गुरु के साथ विरोध होने पर वह अलग हो गया, और भूगा और सुख नामक दो यति श्रोर साथ मिलाकर तीन हो गए। तीनों ने ही स्वयं को दीक्षित किया और मुंह पर कपड़ा बांध लिया । इन का नवीन वेष देखकर लोग इन को रहने को स्थान भी नहीं देते थे । तव ये उजड़े हुए मकानों में रहने लगे । गुजरात में टूटे-फूटे मकान को ढून्ढ कहते हैं, इस वास्ते लोगों ने इन का नाम दूण्डिया रखा ।
इसके अतिरिक्त प्रागे चलकर उक्त पुस्तक के पृष्ठ ५३६ पर लिखा है कि "ये पट्टीबन्ध जितने साधु हैं, इन का पन्थ सम्वत् १७०६ के साल से चला है । और इनका मत तब से लेकर ग्राज पर्यन्त इन के मत में कोई है......।" यह संव कहां तक सत्य है ? उत्तर में निवेदन है ।
जब से निकला है विद्वान नहीं हुआ
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स्थानकवासी समाज की उत्पत्ति के सम्बन्ध में श्री विजयानंद सूरि ने जो कुछ लिखा है, इस में कुछ भी सत्यता नहीं है । निरी द्वेषपूर्ण उन की अपनी एक काल्पनिक बात है । ये पहले स्थानक - वासी साधु थे, किन्तु प्राचार और विचार हीनता के कारण स्था
X श्राजकल वीर सम्वत् २४९० है | विजयानन्दसूरि जी की मान्यता के अनुसार स्थानकवासी समाज को प्रादुर्भाव हुए ७८१ वर्ष हो गए हैं ।