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. चतुर्दश अध्याय
६.३ . .
किन्तु कहीं पर भी तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा का या तीर्थंकरमन्दिर का वर्णन नहीं मिलता। यदि जिन-देव की मूर्ति का उस “समय पूजन प्रचलित होता तो यक्ष-मन्दिरों की भांति शास्त्रकार . तीर्थकर-मन्दिरों का भी अवश्य निर्देश करते। परन्तु किसी भी जैनागम में तीर्थंकर-मन्दिर का कहीं निर्देश कहीं किया गया। इस से स्पष्ट है कि तीर्थंकरों की मूर्ति-पूजा का जैनागमों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । - जैनागमों में बहुत से श्रावकों का वर्णन भी आता है। उसमें महाराजा प्रदेशी द्वारा दानशाला बनवाने का, मगधनरेश श्रेणिक द्वारा "अमार" घोषणा कराने का तथा त्रिखण्डाधिपति श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का दलाल बनकर हज़ारों नर-नारियों को दीक्षा दिल‘वाने का, इसी प्रकार श्रावकों के अन्य कृत्यों का भी वर्णन शास्त्रों में मिलता है, परन्तु शास्त्रों में कहीं पर भी किसी श्रावक द्वारा मन्दिर बनवाने या प्रतिमा स्थापित कराने का ज़िक्र तक नहीं पाया जाता। जब शास्त्रों में श्रावकों के सुपात्रदान का वर्णन हो सकता है, अष्टमी, चतुर्दशो नथा पूर्णिमा को पौषध करने का, अग्यारह प्रतिमाओं (प्रतिज्ञाओं) का तथा कितने ही श्रावकों के संथारे* (आमरण-अनशन) का सूत्रों में वर्णन किया जा सकता है, तब जो लोग मूर्ति-मूजा करते थे, उनका उल्लेख क्यों नहीं - - हो सकता ? परिवार के व्यक्तियों तक का शास्त्रकारों ने उल्लेख
कर दिया तब यदि उस समय घरों में प्रतिमाएं स्थापित होतीं तो. .. उन का उल्लेख भी अवश्य किया जाता ? शास्त्रों में प्रतिमा-पूजन
का अभाव ही यह प्रमाणित करता है कि मूर्ति-पूजा अशास्त्रीय है,
..*देखो-अन्तकृद्दशा सूत्र, ग्रानन्द श्रावक का वर्णन ।