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प्रश्नों के उत्तर आता उसे भी उस में स्नान करने की पवित्र प्रेरणा प्रदान किया करते थे । यही ग्राप के आध्यात्मिक जीवन का सर्वतोमुखी ध्येय था । इसी ध्येय की पूर्ति के लिए अपने अपना सारा जीवन लगा दिया । जीवन की अन्तिम घड़ियों में भी आपका अष्टम तप (लगातार तीन उपवास, तेला) चल रहा था । तपदेव की अराधना में ही : आपने अपने अन्तिम सांस लगाए । इस प्रकार युग-पुरुष लौंकाशाह अपने अध्यात्म जीवन से नए युग को अनुप्राणित करके चैत्र शुक्ला
एकादशी सम्वत् १५४६ को स्वर्गधाम जा विराजे । ..... .. धर्म-प्राण लौकाशाह का स्थानकवासी परम्परा में : बड़ा - ऊंचा स्थान है । स्थानकवासी समाज उन्हें एक महान युग-स्रष्टा ..
और अपूर्व क्रान्तिकारी नेता के रूप में देखती है और मानती है कि
इन्होंने स्थानकवासी परम्परा की. महान सेवा की है । लौकाशाह .. के युग में स्थानकवासी परम्परा की जितनी सेवा इन्होंने की है, .
इतनी किसी अन्य श्रावक ने तो क्या, साधु ने भी नहीं की, यदि यह कह दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है। तथापि इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि धर्म-प्राण लौंकाशाह . स्थानकवासी परम्परा के आदि-पुरुष नहीं थे, जन्मदाता नहीं थे। ये . तो केवल इस परम्परा के सम्पोषक तथा सम्वर्धक थे। और इस में ।
नव उत्साह, नूतन चेतना, नव्य तथा भव्य स्फूति लाने वाले थे। . स्थानकवासी परम्परा का प्रतीत बहुत प्राचीन है। और इतना ..
अधिक प्राचीन कि वह धीरे-धीरे भगवान महावीर के चरणों में .
जा पहुंचता है, जो कि भगवान महावीर स्वामी · की वंश- . ... परम्पराक द्वारा बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। ........
भगवान महावीर की वश-परम्परा का उल्लेख पीछे पृष्ठ ६७३... से लेकर ६८५ तक किया जा चुका है। . . . . . .