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त्रयोदश अध्याय
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की वृद्धि हुई है । उत्तम, रसीले पदार्थ भी इस शरीर में जाकर प्रशुचि रूप से परिणत हो जाते हैं। नमक की खान में जो पदार्थ गिरता है, जैसे वह नमक बन जाता है, ऐसे ही जो पदार्थ शरीर के संयोग में आते हैं वे सब अपवित्र हो जाते हैं। आंख, नाक, कान आदि नव द्वारों द्वारा सदा इस शरीर से मल भरता रहता है । इस प्रकार के घृणास्पद शरीर पर कभी प्रासक्त नहीं होना
चाहिए ।
मल्लिकुमारी के इस उपदेश को सुनकर
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छहों राजाओं को ज्ञान प्राप्त हो गया । अन्त में, उन्होंने अपने-अपने ज्येष्ठ पुत्र का राज्याभिषेक करके, मल्लिकुमारी के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । इस प्रकार भगवान मल्लिनाथ ने छः राजाद्यों को कल्याणमार्ग में
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लगाया।
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भगवान मल्लिनाथ का स्त्रीत्व इस तथ्य का जीवित प्रमाण है कि स्त्री भी तीर्थंकर हो सकती है । विश्व के किसी भी धर्म में स्त्री को धर्म-संस्थापक के रूप में महत्त्व नहीं दिया गया है। जैन'धर्म की यह उल्लेखनीय विशेषता है कि स्त्री होकर भी भगवान मल्लिनाथ जी ने बहुत व्यापक भ्रमण किया और सर्वत्र हिंसा-धर्म का ध्वज लहराया । १०० वर्ष तक मल्लिनाथ जी घर में रहे और ५४६०० वर्ष तक इन्होंने संयम का पालन किया । अन्त में, ५०० साधुओं और ५०० ग्रार्यकाओं के साथ आप मोक्ष में पधारे
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भगवान मुनिसुव्रत जी
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आप जैन-धर्म के बीसवें तीर्थंकर हैं । ग्राप की जन्म भूमि राजगृह नगरी थी । आप के पिता हरिवंश - कुलोत्पन्न महाराज सुमित्र थे और आप की माता का नाम पद्मावती देवी था । आप का जन्म