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प्रश्नों के उत्तर
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'करता है, किन्तु वह ज्ञान - पूर्वक करता है, उसमें किसी सावद्य प्रवृत्ति को निकट नहीं ग्राने देता तो उस के सामने अज्ञात जन्य तप का कुछ भी मूल्य नहीं है । वह तप ज्ञान के साथ किए गए तप रूप पूर्ण चन्द्रमा की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं हो सकता* । भाव यह है कि विवेक - शून्य तपश्चरण आत्मा को उन्नत बनाने की बजाए उसका पतन करता है ।
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भगवान पर्श्वनाथ वचपन से ही बड़े साहसी और निर्भीक थे । भयं तो मानों इन से भयभीत होकर भाग गया था । इनके जीवन में ऐसे अनेको कथानक मिलते हैं, जिन से इन की वीरता तथा निर्भीकता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होतो है । उदाहरण के लिए एक घटना सुनिए । एक बार ये गंगा के किनारे घूम रहे थे । वहां पर कुछ तापत ग्राग जला कर तपस्या कर रहे थे । ये उन के पास पहुंचे और बोले इन लड़कों को जलाकर क्यों जीव--हिंसाकरते हो ? राजकुमार की बात सुनकर वे बड़े झुंझलाए । और बोले की
जयप
1.
तुझे हिंसा अहिंसा का क्या बोध है? तुम अभी बच्चे हो, तुम.. अभी महलों के भोग भोगने सीखे हैं । सन्तों की साधना को अभी तुम क्या समझ सकते हो ? जाओ. कहीं पहले हिंसा तथा हिंसा को समझने के लिए किसी सुयोग्य गुरु की सेवा करो । तापसों का का इतना कहना था कि कुमार ने तापसों के पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा कर ज्यों ही जलती हुई लकड़ी को फाड़ा तो उस में से नाग
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* मासे - मासे तु जो बालो, कुमग्गेणं तु
न सो सुयक्खाय- धम्मस्प, कल
अग्घइ
भुजए ।
सोलसि ॥
उत्त० प्र० ९-४४