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प्रश्नों के उत्तर
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इस अवसर्पिणी-कालीन जैन परम्परा में केवल - ज्ञाने का प्रारंभ भगवान ऋषभदेव से होता है और उसका न्त श्री जम्बुस्वामी के बाद हो जाता है । जम्बू स्वामी ही इस काल के प्रतिग केवली थे । जम्बूस्वामी के निर्वाण के अनन्तर निम्नोक्त १० बातें समाप्त हो गई।
१- परम अवधिज्ञान,
२- मनः - पर्यवज्ञान, ३- पुलाक-लब्धि, ४- श्राहारक शरीर;
५- क्षायिक सम्यक्त्वं,
६- केवल - ज्ञान, ७- जिन कल्पी साधु, 5- परिहार- विशुद्धि चारित्र, - सूक्ष्म - सम्पराय चारित्र, १०- यथाख्यात चारित्र
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* इन्द्रियों श्रोर मन की सहायता के विना साक्षात् आत्मा से मर्यादापूर्वक सम्पूर्ण लोक के रूपी द्रव्यों का जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है उसे परमावधि ज्ञान कहते हैं । परमावधि ज्ञानी चरम शरीरी होता है । भगवती-सूत्र शतक १८ उद्देशक ८ को टीका के अनुसार परमावधि ज्ञानी अवश्य ही श्रन्तर्मुहूर्त में केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है । इन्द्रिय और मन की सहायता के विना मर्यादा को लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगत भावों का जानना : मनः पर्यव ज्ञान है। जिस लब्धि (तपोजन्य प्रभाव से उत्पन्न - शक्ति - विशेष) द्वारा मुनि संघ- रक्षा श्रादि की खातिर चक्रवर्ती का भी विनाश कर देता है, उस लब्धि को पुलाक लब्धि कहते हैं । प्राणी-दया, तीर्थकर भगवान की ऋद्धि तथा संशय - निवारण प्रादि प्रयोजनों से १४ पूर्व धारी मुनि अन्य क्षेत्र ( महाविदेह क्षेत्र) में विराजमान हुए तीर्थंकर भगवान के समीप भेजने के लिए लब्धि - विशेष से प्रतिविशुद्ध स्फटिक के समान अपने शरीर में से एक हाथ का जो पुतला निकालते हैं, उसे श्राहारक शरीर कहते हैं अनन्तानुबंधी चार कपानों के और दर्शन - मोहनीय की तीनों प्रकृतियों के