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चतुर्दश अध्याय .. mmmmm
प्राप्त होता है। कर्म-सम्बन्ध का नाश करने के लिए संयम की परिपालना अत्यावश्यक है । संयम का पालन करने के लिए चारित्र को * अपनाना होता है। चारित्र पांच हैं:-१-सामायिक,२-छेदोपस्थापनीय, ३-परिहारविशुद्धि,४-सूक्ष्मसम्पराय, और ५-यथास्यात । समभाव में स्थित रहने के लिए सावध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक है। प्रथम
दीक्षा लेने के बाद विशिष्ट श्रुत का अभ्यास कर चुकने पर विशेष - शुद्धि-निमित्त जो जीवन-पर्यन्त पुनः बड़ी दीक्षा ली जाती है या
प्रथम ली हुई दीक्षा सेदोष हो जाने पर उस का: छेद कर के फिर
नए सिरे से जो दीक्षा का आरोप किया जाता है वह छेदोपस्थापनीय . . चारित्र होता है । जिस में विशेष प्रकार के तपः-प्रधान याचार का
पालन किया जाता है, उसे : परिहार-विशुद्धि-चारित्र कहते हैं। जिन में क्रोध आदि कपायों का तो उदय नहीं होता, सिर्फ लोभ. का अंश अति-सूक्ष्म रूप से शेष रहता है वह सूक्ष्म-सम्पराय. चारित्र कहलाता है तथा जिस में किसी भी कंपाय का उदय नहीं होने पाता वह यथाख्यात (वीतराग) चारित्र कहा जाता है।.. ..
भाव-स्थान को प्राप्त करने वाला साधक उक्त चारित्र का पालन करता है। ये चारित्र भावस्थान को प्राप्त करने के साधन हैं। इन साधनों द्वारा भावस्थान की प्राप्ति होती है। इन साधनों पर अन्नं वै प्राणा:”x इस सिद्धान्त के अनुसार यदि साध्य का. आरोप कर लिया जाए तो इंन को भी भावस्थान कह सकते हैं। साँधन में साध्य का आरोप कर लेने पर सामायिक यांदि संयम. 'स्थान भी भावस्थान के नाम से व्यवहृत किए जा सकते हैं । सामा- . .. .
अन्न, ही प्राण है। यहां अन्न प्राणों का साधन होने पर भी साध्य रूप में ही-ग्रहण किया गया है।
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