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.. . चतुर्दश अध्याय
६६६... राज और आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने वाले, केवल ज्ञानी,सिद्ध,बुद्ध सभी जीव या जाते हैं। मोक्ष-स्थान को प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले साधक तो विशुद्ध भाव से सामायिक आदि चारित्र रूप भावस्थान में निवास करने के कारण तथा भावस्थान
(संयम) के पोषक निर्दोष स्थानक, उपाश्रय या वसति आदि में ... वास करने से स्थानकवासी कहलाते ही हैं किन्तु लोक के अग्रभाग
में विराजमान सिद्ध भगवान भी स्थानकवासी कहे व माने जा सकते हैं । तथा सर्वोत्कृष्ट कैवल्य-विभूति द्वारा प्राप्त,परम-पुनीत जीवनमुक्त स्थान में निवास करने वाले तीर्थंकर भगवान और अन्य केवली भी स्थानकवासी प्रमाणित हो जाते हैं, क्योंकि ये सब आत्माएं अपने भावस्थान-ज्ञान, दर्शन आदि आत्मस्वरूप में विराजमान रहती हैं। इनका भावस्थानक में होना ही इनको स्थानकवासी प्रमाणित कर देता है। इसके अतिरिक्त, यह भी समझ लेना
चाहिए कि प्रत्येक मोक्षाभिलाषी साधक को सर्वप्रथम स्थानकवासी . बनना ही पड़ता है । स्थानकवासी बनकर ही वह मोक्षमन्दिर को प्राप्त करने में सफल-मनोरथ हो सकता है। स्थानकवासी बने बिना मोक्ष का महामन्दिर हाथ नहीं आ सकता । कारण स्पष्ट है, जब तक यह आत्मा संयम रूप भावस्थान में वास करता हया अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध नहीं होता तब तक मोक्ष प्राप्त होना कठिन ही नहीं, बल्कि सर्वथा असंभव है । अतः प्रत्येक साधक को सव से पहले स्थानकवासो बनना होता है। उसके अनन्तर ही उसे सच्चिदानन्द की अवस्या मिल सकती है।
स्थानकवासी शब्द का प्रयोग केवल जैन-साधुओं के लिए ही नहीं होता, बल्कि स्थानकवासी परम्परा को मानने वाले या देश-संयम रूप भावस्थान में वास करने वाले गृहस्थ वर्ग पर भी