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प्रश्नों के उत्तर
यिक श्रादि अनुष्ठानों में संलग्न सात्मा पर-भाव को छोड़ कर निज स्वभाव में अवस्थित होता है। पुद्गलानन्दी न रह कर श्रात्मानन्दी बन जाता है । इसलिए भावस्थान का "श्रात्मा का विभाव को छोड़कर निजस्वरूप में प्रतिष्ठित होना" यह श्रर्थ भी फलित हो जाता है । इस प्रकार भावस्थानक के दो अर्थ प्रमाणित होते हैं-१श्रात्मस्वरूप तथा २ ग्रात्मस्वरूप की प्राप्ति में साधन-भूत सामायिक आदि चारित्र |
स्थानक शब्द की द्रव्य और भाव गत अर्थविचारणा के अनन्तर यह स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य स्थानक में वास करने वाला द्रव्यस्थानकवासी और भाव स्थानक में वास करने वाला भावस्थानकवासी कहलाता है । स्थानके द्रव्यस्थानके कस्यांचित् वसत्यां वसति तच्छील इति द्रव्यस्थानकवासी तथा भावस्यानके भावसंयमादिरूपे सम्यक् — चारित्रे वसति तच्छील:, भावस्थानकवासी । इस प्रकार गुरनिष्पन्न यौगिक व्युत्पत्ति के द्वारा स्थानकवासी के दोनों रूपों की स्पष्टता और प्रामाणिकता भली भांति सुनिश्चित हो जाती है । यह सत्य है कि शाब्दिक व्युत्पत्ति के आधार पर व्यक्ति चाहे जंन हो या श्रजैन हो द्रव्य और भाव स्थानक में वास करने से स्थानकवासी कहला सकता है । स्थानकवासी शब्द की भावना से भावित प्रत्येक व्यक्ति स्थानक - वासी पद से व्यवहृत किया जा सकता है किन्तु यह शब्द आज एक विशिष्ट सम्प्रदाय के रूप में रूढ़ हो गया है। मूर्ति पूजा में विश्वास न रखने वाला श्वेताम्बर जैन समाज ही श्राज स्थानकवासी शब्द द्वारा समझा व माना जाता है ।
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स्थानकवासी शब्द का क्षेत्र बड़ा व्यापक है । इस की परिधि में संयम के महा-पथ पर बढ़ने वाले, आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने के लिए कर्मसेना के साथ युद्ध करने वाले सभी संयमी, साधु, मुनि
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