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त्रयोदश अध्याय
६४१ दीन समझना निरी अज्ञानता है । इसके अलावा, भगवान ने भिक्षुसंघ के समान भिक्षुणी संघ, तथा श्रावक संघ की भांति श्राविका संघ बना कर नारी जाति के सम्मान तथा आदर को सर्वथा सुरक्षित रखा । भगवान के संघ में जहां साधुओं की संख्या १४ हजार
थी वहां साध्वियों की संख्या ३६ हजार थी। भगवान के दरबार . में अध्यात्म नारी कितनी सम्मानित तथा सत्कृत होती थी ? यह ...
उन के चतुर्विध संघ में, भिक्षुणी संघ और श्राविका संघ के स्वतंत्र निर्माण से ही स्वतः स्पष्ट हो जाता है । . : ....
भगवान महावीर के सामने दूसरी समस्या अछूतों की थी। उस समय का हिन्दू समाज शूद्र जाति को अछूत और अस्पृश्य बनाकर उस के साथ बड़ा दुर्व्यवहार करता था । शूद्रों की इतनी अधिक दुर्दशा थी कि यदि कोई शूद्र-किसी ब्राह्मण की छाया को भी छू जाता था तो बहुत बुरी तरह उस की मार-पीट की जाती
थी। धर्म-स्थानों में किसी शूद्र को जाने नहीं दिया जाता था, - यदि शूद्र किसी वस्तु आदि का स्पर्श करदे तो उसे फेंक दिया .
जाता था । शूद्रों के साथ हो रहे इस प्रकार के अमानवीय दुर्व्यवहार से भगवान महावीर को अत्यधिक वेदना हुई । और उन्होंने इस का भी डट कर विरोध किया। भगवान ने कहा कि मनुष्य जाति एक है, उस में जात-पात की दृष्टि से विभाग करना किसी
भी तरह ठीक नहीं है । मनुष्य के प्रति, यह स्पृश्य है या अस्पृश्य . · है, इस प्रकार का भेद-मूलक विचार मानवता के लिए कलंक है। ..
जन्म से कोई स्पृश्य नहीं है और कोई अस्पृश्य नहीं हैं। ऊंच, नीच . ... के सम्बन्ध में भगवान के विचार कर्म-मूलक थे। भगवान का ..
विश्वास था कि श्रेष्ठ कर्म व्यक्ति को श्रेष्ठ और दुष्ट कर्म. व्यक्ति को दुष्ट बना देता है। अतः जन्म से न कोई श्रेष्ठ है और न.