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चतुर्दश अध्याय
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उस स्थान के लिए किया जाता है जिस में माटी, पानी, तृण, घास यदि सचित्त पदार्थ नहीं हैं, जो स्त्री, पशु और नपुंसक से रहित है, जो साधु-मुनिराजों के निमित्त तैयार नहीं किया गया हैं, अर्थात् 'साधु को निमित्त बनाकर जिस में किसी भी प्रकार की ग्रारंभ, समारंभ यादि क्रियाएं नहीं की गई हैं, चाहे वह किसी व्यक्तिविशेष का है या किसी समाज का है, ऐसे शान्त, एकान्त तथा शुद्ध स्थान को स्थानक कहीं जाता है । अथवा उस धर्म-स्थान का नाम स्थानक है, जिस का श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन परम्परा को मानने वाले गृहस्थ लोगों ने अपनी श्राध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्मारण किया है । अथवा समय-समय पर संयमशील जेन-मुनि जिस स्थान में निवास करते हैं, धर्म प्रचार करने के लिए अपनी मर्यादा के अनुसार आकर ठहरते हैं वह स्थान स्थानक कहलाता है ।
स्थानक शब्द की उक्त अर्थ- विचारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि, स्थानक शब्द का प्रयोग दो स्थानों के लिए किया जा सकता है, एक, जो सामान्य मकान है, जो धर्म-स्थान के रूप में नहीं बनाया गया है, जो किसी एक व्यक्ति का है, और जिस में साधु मुनिराज ठहरते हैं, धर्मोपदेश करते हैं, तथा दूसरा, वह स्थान जिस का 'धर्म - स्थाने' के रूप में समाज या एक व्यक्ति द्वारा निर्माण हुआ है । इस प्रकार स्थानक शब्द दो ग्रर्थों का बोधक है, किन्तु ग्राजकल इस का अधिक प्रयोग श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन श्रावक संघ के एक धार्मिक स्थान के लिए ही किया जाता है ।
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स्थानक को उपाश्रय * भी कहा जाता है । स्थूल दृष्टि से देखा
* उपाश्रीयते संसेव्यते संयमात्मपालनायेत्युपाश्रयः । ( स्थानांग - वृत्तिः )