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त्रयोदश अध्याय
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न्याय,काव्य और अलंकार ज्ञान में विशेष पाण्डित्य प्राप्त किया था,
और सुन्दरी ने गणित विद्या में असाधारण सफलता प्राप्त की थी। भगवान के यहां पुत्र और पुत्रियों में आजकल सा भेद-भाव नहीं था। वे दोनों पर एक जैसा प्रेम रखते थे। दोनों की शिक्षा-दीक्षा . का उन्होंने पूरा-पूरा प्रवन्ध किया था। वे नर और नारी दोनों की उन्नति का ध्यान रखते थे। उन्होंने स्त्रियों को ६४ कलाएं और पुरुषों को ७२ कलाएं सिखलाई। ..... ...। : भगवान ऋषभदेव ने जव देखा कि भरत, वाहुवली अब योग्य हो गए हैं और प्रजा के शासन-भार को अच्छी तरह उठा सकते हैं। तब उन्होंने राजपाट को छोड़ कर साधु-जीवन अंगीकार किया। साधु वन जाने के पश्चात् . भगवान एकान्त, शून्य वनों में ... ध्यान लगाकर खड़े रहते थे। किसी से कुछ बोलते-चालते भी। नहीं थे । सर्वदा मौन रहते थे। भगवान के साथ चार हजार अन्य . राजाओं ने भी साधु-जीवन अंगीकार किया था। ये लोग किसी वैराग्य भाव से प्रेरित हो कर तो घर से निकलें नहीं थे, इन्हें तो भगवान का प्रेम खींच लाया था। अंतः मुनि-जीवन में इन्हें कोई आध्यात्मिक प्रानन्द नहीं मिल सका । भूख, प्यास के कारण ये घबरा उठे। भगवान तो मौन रहते थे, अतः उनसे कुछ कह सुन .. नहीं पाते थे । अन्त में, निराश होकर मुनिवृत्ति छोड़कर जंगलों में कुटिया बनाकर रहने लगे। वन-फलों का भोजन खाकर .. जीवन का निर्वाह करने लगे। भारत वर्ष के विभिन्न धर्मों का . इतिहास यहीं से प्रारम्भ होता है । भगवान ऋषभदेव के समय में । ही ३६३ मत स्थापित हो चुके थे। इन मतों के संस्थापक वही व्यक्ति थे, जो भगवान के साथ देखादेखी मुनि बने थे, किन्तु भूख, प्यास तथा संयम-जीवन में आने वाले अन्य कष्टों को सहन न कर