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त्रयोदश अध्याय
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प्रारणी होते हैं । कल्पवृक्षों से जीवनोपयोगी आवश्यक पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, उन्हीं से वे प्रसन्न रहते हैं । मरते समय एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म देते हैं। दो प्राणियों को जन्म देकर वे संसार से विदा हो जाते हैं । दोनों बालक अपना-अपना अंगूठा चूस कर बड़े होते हैं, और बड़े होने पर पति, पत्नी के रूप में रहने लगते हैं । तीसरे आरे का बहुत भाग बीतने तक यही क्रम चलता रहता है । इस काल को भोग- भूमि काल कहते हैं । कारण इतना ही है कि उस समय के लोगों का जीवन भोग-प्रधान होता है । उन्हें अपने जीवन के निर्वाह के लिए कुछ भी उद्योग नहीं करना पड़ता । कल्पवृक्ष ही उन की समस्त कामनाएं पूर्ण कर देते हैं ।
यांगे चलकर समय ने करवट ली । कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण होने लगी । श्रावश्यकता की पूर्ति के लिए जितना सामान चाहिए: था, कल्पवृक्षों से उतना मिलना बन्द हो गया । आवश्यक वस्तुओं की न्यूनता हो जाने से पारस्परिक संघर्ष का होना स्वाभाविक था । परिणाम स्वरूप लोगों में परस्पर मन-मुटाव चलने लगा । इस मनमुटाव को दूर करने के लिए, तथा लोगों के रहन-सहन की व्यवस्था क़ायम करने के लिए समय-समय पर कुछ लोंग नेताओं के रूप में आने लगे । जैन दर्शन उन नेताओंों को कुलकर के नाम से पुकारता है । कुलकरों ने तात्कालिक परिस्थितियों को शान्त करने का पूरा-पूरा यत्न किया । सर्वत्र शान्ति स्थापित करने के लिए वृक्षों की सीमा निर्धारित कर दी गई । जव सीमा पर भी विवाद होने लगा तब सीमा के स्थान को सुनिश्चित करने के लिए चिन्ह बना दिए गए । इस तरह कुलकर तात्कालिक स्थितियों पर काबू पा लेते थे ।
उस समय पशुओं से काम लेना कोई नहीं जानता था, किन्तु