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प्रश्नों के उत्तर
सकने के कारण मुनिवृत्ति छोड़कर जंगलों में कुटिया बना कर, और वन- फलों द्वारा अपने जीवन का निर्वाह करने लग गए थे ।
धर्म के मुख्यतया दो अंग है - तत्त्व - ज्ञान और ग्राचरण | जव मनुष्य की ज्ञान-शक्ति दुर्बल हो जाती है, तब तत्त्व-ज्ञान में उलट-फेर किया जाता है । और इस के फल - स्वरूप जड़, चेतन, पुण्य, पाप आदि के सम्बन्ध में एक दूसरे से टकराती हुई विभिन्न विचार - वाराएं वह तिकलती हैं । और जव प्राचररण शक्ति कमजोर पड़ जाती है तव ग्राचार सम्बन्धी नियमों में भोग-बुद्धि के प्राधान्य से ग्रन्तर डाल दिया जाता है । तथा भूठे तर्कों की ग्रा में अपनी दुर्बलताओं का संरक्षण किया जाता है। धार्मिक मतभेदों में प्रायः यही दो बातें मुख्य कारण वना करती हैं । भगवान ऋषभदेव के युग में जो ३६३ मत स्थापित हुए, इनके भी यह दो मुख्य कारण थे ।
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भगवान ऋषभदेव का साधनाकाल बड़ा विचित्र था, और तो क्या, शरीर रक्षा के लिए भगवान अन्न-जल भी ग्रहण नहीं किया करते थे । सदा प्रात्म-साधना में तन्मय रहा करते थे । ग्रन्न-जल ग्रहण किए भगवान को १२ मास हो चुके थे । भगवान ने एक दिन विचार किया कि मैं तो इसी प्रकार तप के महापथ पर चलकर अपना जीवन - कल्याण कर सकता हूं, भूख, प्यास ज़रा भी मुझे विचलित नहीं कर सकती, परन्तु मेरे अन्य साथियों का क्या हाल होगा ? वे तो इस प्रकार लम्बा तप नहीं कर सकते । दूसरी बात एक और भी है, वह यह कि प्रहार के बिना श्रदारिक* शरीर ठिक भी नहीं सकता । श्रदारिक शरीर को
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* जिस में हड्डी, मांस, रक्त आदि हों, मरने के बाद जिस का शवं पड़ा रहता हो तथा जिस से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती हो, उस को प्रदारिक शरीर कहते हैं । यह शरीर मनुष्य और तिर्यञ्च का होता है ।