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प्रश्नों के उत्तर
कहलाते हैं । एवं ग्रहिंसा, संयम और तप के अध्यात्म उपदेश द्वारा संसारी लोगों को तार कर स्वयं मोक्ष चले जाते हैं । फिर कभी अवतार नहीं लेते । श्रतः श्रवतारों में श्रीरः तीर्थकरों में बहुत अन्तर है ।
प्रश्न - - तीर्थंकर कव होते हैं ?
उत्तर - जैन दर्शन ने उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के नाम से काल के दो विभाग किए हैं । इस उत्सर्पिणी और श्रवसर्पिणी का कालमान असंख्य वर्ष होते हैं । असंख्य का ग्रंथ है - जिसकी अंकों द्वारा गणना न की जा सके। उत्सर्पिणी काल में रूप, रस, गंध, स्पर्श, आयुष्य, शरीर और वल आदि वैभव क्रमशः बढ़ता चला जाता है, जब कि अवसर्पिणी काल में उक्त सब घटते चले जाते हैं । सर्प की पूछ से उसके मुख की ओर ग्राएं तो सर्प की मोटाई बढ़ती जाती है और मुख से पूछ की ओर ग्राएं तो वह घटती चली जाती है । यही दशा उत्सर्पिरगी और श्रवसर्पिणी की होती है । उत्सर्पिणी काल में पदार्थों के रूप, रस ग्रादि धीरे-धीरे बढ़ते जाते हैं और अवसर्पिणी काल में वही धीरे-धीरे घटने प्रारंभ हो जाते हैं ।
'उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों के ६-६ विभाग होते हैं । इन में प्रत्येक विभाग को आरक कहा जाता है । उत्सर्पिणी श्रीर अवसर्पिणी के काल चक्र की एक पहिए के रूप में कल्पना करें, तो इन बारह विभागों को १२ प्रारे कह सकते हैं । एक काल के ६ ग्रारे पूर्ण होने पर दूसरे काल के ६ आरों का क्रमशः प्रारम्भ होता है । इस समय भारत वर्ष आदि क्षेत्रों में अवसर्पिणी काल का पांचवाँ ग्रारा चल रहा है । वैदिक परम्परा में इस आरे को. कलियुग कहते हैं ।
तीर्थंकर भगवान् प्रत्येक काल-चक्र के तीसरे और चौथे ग्रारे.
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