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प्रश्नों के उत्तर
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उससे वायुकाय के जीवों की तथा ग्रन्य जीवों की हिंसा हो जाती है । गोचरी लेते समय एक हाथ में झोली होती है, तथा दूसरे हाथ में पात्र, ग्रतः आहार कम-ज्यादा लेने या न लेने के सम्वन्ध में. बोलने में कठिनाई होती है; उस समय यदि मुखवस्त्रिका हाथ में रखी जाए तो उसे लगाया नहीं जा सकेगा और उसे खुले मुंह बोलना होगा । इसी तरह प्रतिक्रमण की श्राज्ञा लेने के लिए गुरुवन्दन करते समय "तिक्खुत्तो" या "इच्छामि खमासमणी" का पाठ बोलते हैं । उस समय दोनों हाथ जोड़ कर वन्दना करने की परम्परा है, यतः मुखपर वस्त्र रखने का विवेक नहीं रह सकेगा। इसी तरह “नमोत्युणं" देते समय श्रीर 'इच्छामि खमासमणी' के १२ ग्रावर्तन करते समय तथा श्रमण सूत्र बोलते समय यतना रख सकना कठिन हो नहीं, ग्रसम्भव है । यदि यतना करने जाएंगे तो उस क्रिया को विधि- पूर्वक नहीं कर सकेंगे और विधि का पालन करेंगे तो निरवद्य भाषा नहीं बोल सकेंगे । इस तरह सुप्तावस्था में भी कभी - कभी ग्रचानक बोल उठते हैं, बड़बड़ाने लगते हैं, मुंह से श्वास लेने लगते हैं,और उस समय हाथ में रही हुई मुखवस्त्रिका को लगाना बिल्कुल असम्भव है । अतः मुखवस्त्रिका को हाथ में रखकर हम वीतराग की प्राज्ञा का पूरा-पूरा पालन नहीं कर सकते । संयम की अराधना के लिए यह ज़रूरी है कि मुखवस्त्रिका को मुख पर बांधा जाए और वह भी सदा के लिए | क्योंकि इससे लाभ ही है, नुकसान नहीं। यह ठीक है कि हम २४ घण्टे नहीं बोलते, परन्तु यह भी सत्य है कि मुख पर नहीं बाँधने से हम कई बार भूल, से, प्रमाद से या भ्रान्तिवश खुले मुंह बोल सकते हैं । जैसा कि ग्राज मूर्ति-पूजक समाज में होता है । वे भी खुले मुह बोली जाने वालो भाषा को सावद्य मानते हैं, परन्तु मुखवस्त्रिका नहीं बांधने के
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