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प्रश्नों के उत्तर
गए रजोहरण को ग्ररिंगक कहा जाता है। ऊंट के वालों से बनाए गए रजोहरण को प्रष्ट्रिक, सन अर्थात् पाट (Jute ) से बने रजोहरण को सानक, ल्वज नाम के तृरण को कूट कर उसकी छालसे बनाए गए रजोहरण को पच्चारिणच्चित्र और मूंज के रंजोहरण को मुंजपिच्छित कहते हैं । साधारणतः ऊन के रजोहरण का प्रचलन है और इसी को अधिक प्रमुखता दी गई है ।
प्रश्न - क्या सभी जैन साधु रजोहरण का उपयोग करते हैं ?
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उत्तर - यह हम देख चुके हैं कि महावीर युग में जिन कल्प और स्थविर कल्प दो परम्पराएं थीं । और दोनों परम्पराओं में रजोहरण रखने का विधान मिलता है । जिन कल्प पर्याय को स्वीकार करने वाले मुनि वस्त्र का परित्याग कर देते थे, परन्तु रजोहररण और मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण तो वे भी रखते थे । भगवान् महावीर के निर्वारण के बाद क़रीब ६०६ वर्ष तक अथवा दिगम्बरश्वेताम्बर का सांप्रदायिक भेद खड़ा नहीं हुया तब तक सभी जैन साबु रजोहरण रखते रहे हैं। बाद में दिगम्बर परम्परा में मुनियों ने रजोहरण रखना छोड़ दिया और उसकी जगह वे मोरपिच्छो रखने लगे । रजोहरण के उद्देश्य के परिपालन को अनिवार्यता को वे भी मानते हैं, ऐसा कहना चाहिए । प्रौर श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी, मूर्तिपूजक और तेरहपंथी तीनों संप्रदाएं रजोहरण रखतो हैं और उसके साथ एक छोटो रजोहरणी — जिसे परिमार्जनिका या बोल-चाल की भाषा में पूजनी कहते हैं— भी रखते हैं । साध्वियें भी रजोहरण श्रीर रजोहरणी रखती है, अन्तर इतना ही है कि उनकी रजोहरणी लकड़ी की डंडी से रहित होती है ।
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