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प्रश्नों के उत्तर
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शुद्धि का मूल कारण है-धर्म | इसलिए जैन दर्शन में धर्म को भी तीर्थ माना गया है ।
धर्म मानव को दुर्गति से निकाल कर सद्गति में पहुँचाता है । मानव के प्राधि, व्याधि और उपाधि रूप त्रिताप को उपशान्त करता है । तीर्थंकर अपने समय में ऐसे धर्मतीर्थ की स्थापना करते है, उसका उद्धार करते हैं अतः वे तीर्थंकर कहलाते हैं ।
धर्म का आचरण करने वाले साधु साध्वी, श्रावक (जैन गृहस्य ) प्रोर श्राविका ( जैन महिला ) रूप चतुर्विध संघ को भी धार्मिक गुणों की अपेक्षा से तीर्थ कहा जाता है । अतः इस चतुविध धर्म संघ की स्थापना करने वाले महापुरुषों को भी तीर्थंकर कहा गया है ।
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तीर्थंकर अनन्त दर्शन ग्रनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य के धारी होते हैं । ये साक्षात् भगवान् या ईश्वर होते हैं । जब तोर्थंकर माता के गर्भ में प्राते हैं तो इन की माता को १४ - शुभ जिनस्वप्न दिखाई देते हैं । तीर्थंकरों के गर्भावतरण, जन्माभिषेक, दीक्षा, केवल ज्ञान की प्राप्ति और निर्वारण प्राप्ति, ये पांच कल्याणक होते हैं । ये जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों के धारक होते हैं। जन्म से ही इनका शरीर कान्तिमान होता है । इन के निश्वास में अपूर्व सुगन्धि रहती है । इन के शरीर का रक्त और मांस सफेद होता है । इन की वाणी को पशु भी समझ लेते हैं । जहां-जहां इन का विहार होता है, वहां-वहां रोग, वैर, महामारी, प्रतिवृष्टि, दुर्भिक्ष आदि संकट नहीं होने पाते । तीर्थंकर भगवान के पधारने के साथ ही देश में सर्वत्र शान्ति छा जाती है ।
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तीर्थंकरों का जीवन बड़ा अद्भुत होता है । उनके समवसरण ( धर्म - सभा) में हिंसा का अखण्ड साम्राज्य होता है । सिंह और
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