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त्रयोदश अध्याय
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मृग श्रादि परस्पर-विरोधी पशु भी प्रेम से एक साथ बैठते हैं । न सिंह में मारक - वृत्ति रहती है और न मृग में भयवृत्ति । श्रहिंसा के दिवाकर के सामने हिंसा - अन्धकार का अस्तित्व भला कैसे रह सकता है ? स्वर्ग लोक के देवता भी उनके चरण कमलों में श्रद्धाभक्ति के साथ नतमस्तक होते हैं । तीर्थंकर जहां विराजते हैं, आकाश में देवता दुन्दुभी बजाते हैं और गन्धोदक की वर्षा करते हैं ।
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तीर्थकर का जीवन बड़ा तेजस्वी और प्रतापी जीवन होता है | ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिक कर्मों को क्षय करने के अनन्तर ये केवल ज्ञानं की प्राप्ति करते हैं । केवल ज्ञान और केवल दर्शन के द्वारा तीन लोक प्रौर तीन काल की सब बातें जानते हैं, देखते हैं । संसार का कोई भी तत्त्व इन के ज्ञान से अछूता नहीं रहता । तदनन्तर ये अपना शेष समस्त जोवन संसार के प्राणियों का उद्धार करने में व्यतीत करते हैं । कुप्रथाएं, कुरूढिएं, अन्याय और अनीति को हटाकर सत्य, हिंसा पूर्ण वातावरण तैयार करते हैं, संसार को ज्ञान की दिव्य ज्योति से ज्योतित कर डालते हैं । जव तोर्थंकर भगवान की श्रायु थोड़ी शेष रह जाती है, तब योगों का निरोध करके बाकी बचे, वेदनीय, नाम, गोत्र और ग्रायुष् इन चार ग्रघातिक कर्मों को भी नष्ट कर देते हैं । जंव सभी कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब इनको मुक्ति की प्राप्ति होती है । इनका शरीर यहीं छूट जाता है और अपने ज्ञानादि निज गुणों से युक्तं केवल शुद्ध ग्रात्मा स्वाभाविकं उर्ध्वगमन के द्वारा लोक के ऊपर अग्रभाग में जा विराजमान होता है । उस समय ये सिद्ध; परमात्मा बन जाते हैं ।
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प्रश्न - तीर्थंकरों के जीवन में जो बातें बतलाई गई
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