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द्वादश अध्याय
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कारण वे बोलते समय यतना नहीं कर पाते। श्राज तो उक्त सप्रदाय में मुखवस्त्रिका केवल हाथ की शोभा मात्र या रूमाल के रूप में रह गई है । अस्तु, भाषा की सदोपता से बचने के लिए मुख पर मुखवस्त्रिका वांधनी चाहिए और सदा वांबे रखनी चाहिए ।
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प्रश्न - क्या सभी जैन साधु मुखवस्त्रिका का उपयोग करते हैं ?
उत्तर- हम यह देख चुके हैं कि महावीर के युग में जिनकल्प और स्थविर कल्प दो परम्पराएं थी और दोनों परम्परा के मुनि मुखवस्त्रिका को लगाते थे । परन्तु भगवान् महावीर के ६०९ वर्ष वाद जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों भागों में विभक्त हो गया । तव से दिगम्बर परम्परा में मुखवस्त्रिका का अस्तित्व नहीं रहा । उन्होंने वस्त्र मात्र का निषेध कर दिया और वर्तमान में विद्यमान ग्रागमों को प्रामाणिक मानने से भी इन्कार कर दिया | अपने ग्राचार्यों द्वारा निर्मित ग्रंथों को ही वे प्रमाण स्वरूप मानते हैं । अतः उक्त संप्रदाय के मुनि मुखवस्त्रिका नहीं लगाते और न उनके श्रावक ही सामायिक करते समय लगाते हैं । वे खुले मुंह बोली जाने वाली भाषा को सावद्य भी नहीं मानते हैं । फिर भी प्रतिमा का पूजन करते समय मुख पर वस्त्र बांधने की परम्परा उनमें भी है, जिसे वे मुख कोष कहते हैं । यह मुखकोष जीव- रक्षा के उद्देश्य नहीं, बल्कि मूर्ति पर थूक न गिर पड़े
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इसलिए लगाते हैं । व े ० स्थानकवासी,
श्वेताम्बर परम्परा में तीन संप्रदाएं हैं
व े० मूर्तिपूजक और व े ० तेरहपंथ । तीनों संप्रदाएं वर्तमान में उपलब्ध ३२ श्रागमों को प्रामाणिक मानती हैं और यह हम ऊपर बता चुके हैं कि ग्रामों में मुखवस्त्रिका का विधान है और तीनों