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________________ द्वादश अध्याय ५८५ कारण वे बोलते समय यतना नहीं कर पाते। श्राज तो उक्त सप्रदाय में मुखवस्त्रिका केवल हाथ की शोभा मात्र या रूमाल के रूप में रह गई है । अस्तु, भाषा की सदोपता से बचने के लिए मुख पर मुखवस्त्रिका वांधनी चाहिए और सदा वांबे रखनी चाहिए । P प्रश्न - क्या सभी जैन साधु मुखवस्त्रिका का उपयोग करते हैं ? उत्तर- हम यह देख चुके हैं कि महावीर के युग में जिनकल्प और स्थविर कल्प दो परम्पराएं थी और दोनों परम्परा के मुनि मुखवस्त्रिका को लगाते थे । परन्तु भगवान् महावीर के ६०९ वर्ष वाद जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों भागों में विभक्त हो गया । तव से दिगम्बर परम्परा में मुखवस्त्रिका का अस्तित्व नहीं रहा । उन्होंने वस्त्र मात्र का निषेध कर दिया और वर्तमान में विद्यमान ग्रागमों को प्रामाणिक मानने से भी इन्कार कर दिया | अपने ग्राचार्यों द्वारा निर्मित ग्रंथों को ही वे प्रमाण स्वरूप मानते हैं । अतः उक्त संप्रदाय के मुनि मुखवस्त्रिका नहीं लगाते और न उनके श्रावक ही सामायिक करते समय लगाते हैं । वे खुले मुंह बोली जाने वाली भाषा को सावद्य भी नहीं मानते हैं । फिर भी प्रतिमा का पूजन करते समय मुख पर वस्त्र बांधने की परम्परा उनमें भी है, जिसे वे मुख कोष कहते हैं । यह मुखकोष जीव- रक्षा के उद्देश्य नहीं, बल्कि मूर्ति पर थूक न गिर पड़े ". इसलिए लगाते हैं । व े ० स्थानकवासी, श्वेताम्बर परम्परा में तीन संप्रदाएं हैं व े० मूर्तिपूजक और व े ० तेरहपंथ । तीनों संप्रदाएं वर्तमान में उपलब्ध ३२ श्रागमों को प्रामाणिक मानती हैं और यह हम ऊपर बता चुके हैं कि ग्रामों में मुखवस्त्रिका का विधान है और तीनों
SR No.010875
Book TitlePrashno Ke Uttar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmaram Jain Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages606
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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