________________
.....-----
..५६१.
द्वादश अध्याय वात का पूरा ख्याल रखता है कि मेरे निमित्त से किसी भी प्राणी की। हिंसा न हो। इसलिए वह आहार ग्रहण करने के पहले यह भली-भांति :
देख लेता है कि इस आहार के बनने-बनाने में मुझे निमित्त तो नहीं ... बनाया गया है । इस अवलोकन विधि को आगम की भाषा में एपणा
- साधु वही आहार-पानी, वस्त्र, पात्र एवं मकान आदि वस्तुओं को स्वीकार करता है, जो उसके लिए नहीं बनाया गया है या न खरीटा गया है । क्योंकि इन सब कार्यों में हिंसा होती है और साधु को मन, वचन और शरीर से हिंसा करने, करवाने और करने वाले के अच्छा समझने का त्याग है । अत: वह ऐसी कोई वस्तु स्वीकार . : नहीं कर सकता, जो उसके लिए तैयार की गई है । वस्तु के खरीदने . में पैसे का व्यय होता है और पैसा कमाने में हिंसा भी होती है, अतः साधु उस वस्तु को भी स्वीकार नहीं करता, जो उसके लिए खरीद कर लाई गई है। साचु उसो बाहार-पानी,वस्त्र पात्र एवं मकान आदि को ग्रहण करता है. जो गृहस्थ ने अपने उपभोग के लिए बनाया है, उस में साधु का जरा भी भाव नहीं है । गृहस्थ के स्वयं के लिए वनाएं गए प्राहार-पानी में से भी साधु थोड़ा-सा ग्रहण करता है, जिससे उसको देने के बाद फिर से न बनाना पड़े और परिवार के किसी सदस्य को भूखा भी न रहना पड़े। इसलिए वह एक घर से आहार नहीं लेता प्रत्युत कई घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन लेता है । जैसे मधुकर-भ्रमर एक फूल से रस नहीं लेकर कई फूलों की पराग का रसास्वादन करता है और उन फूलों पर भी इस तरह बैठता है जिस से कि उन्हें विशेष पोड़ा न पहुंचे । उसो तरह साधु भी कई घरों से
अपनी वृत्ति के अनुसार निर्दोष आहार स्वीकार करते हैं । जैसे गाय . ... घास को ऊपर-ऊपर से चर्वण करती है, परन्तु गधे की तरह जड़ से