________________
५६७
द्वादश अध्याय
रियों का जीवन हमारे सामने है- जो रात-दिन दुर्व्यसनों में फंसे रहते हैं और जिनके कारण मन्दिर एवं तीर्थों का पवित्र वातावरण भी विकृत बन गया है। साधना के केन्द्र याज दुराचार और दुर्व्यसनों के मड्डे बन रहे हैं । हम प्राय: समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं कि प्रमुक सन्यासी चोरी या ठगी करते हुए पकड़ा गया, लड़के या लड़की को उड़ा कर. भगा कर ले गया । कुछ गण्डे सन्यासियों के भेष में गिरोह बना कर भो ऐसे जघन्य कृत्य करते फिरते हैं । तो यह पौरुष
ना भिक्षावृत्ति का हो दुष्परिणाम है। यह वृत्ति भिक्षुक के जीवन . को भी पतन के गर्त में गिरातो है प्रोर व्यक्ति परिवार, समाज एवं
राष्ट्र के लिए भी अहितकर एवं घातक है। इस तरह के निरंकुश .. जीवन से राष्ट्र का भो नुक्सान होता है। .......... ३- वृत्ति भिक्षा-कुछ ऐसे अपंग व्यक्ति हैं-जैसे लूले-लंगड़े, अन्धे,
वोमार ग्रादि जो स्वयं कोई काम धन्धा कर नहीं सकते और उनका पोषण करने वाला भी कोई नहीं है, ऐसो स्थिति में उन्हें भीख मांगनी पड़ती है, तो यह वृत्ति भिक्षा है अर्थात् भोख हो उन को आजीविका है। इनके जीवन को व्यवस्था करना राष्ट्र का काम है। जब तक सरकार उसके लिए कोई उचित व्यवस्था न कर दे, तब तक यह वृत्ति क्षम्य है । यह वृत्ति राष्ट्र के लिए शोभासद नहीं है। इतने बड़े राष्ट्र में कुछ हजार व्यक्तियों को व्यवस्था का न हो सकना जिस • से उन्हें भीख मांगने के लिए विवश होना पड़े, शर्म की बात अवश्य
है । परन्तु उनके लिए क्षम्य इसलिए है कि वे विचारे और कोई धन्धा कर नहीं सकते और पैट भरने के लिए रोटी अवश्य चाहिए। अतः उन्हें भीख मांगनी पड़ती है। ... इस से यह स्पष्ट हो गया कि जैन-साधु को भिक्षा सर्वसम्पतकरी भिक्षा है। उससे व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र को किसी