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संसार के समस्त जीव सुख-शांति की अनुभूति करते हैं, क्योंकि साधु किसी भी छोटे-बड़े प्राणी को त्रास नहीं पहुंचाता । वह सब जीवों की रक्षा करता है | अतः उसे छः काय का रक्षक भी कहते हैं । उसको भिक्षावृत्ति भी साधना का एक अंग है, उसे भी एक प्रकार का तप बताया है । इससे साधक अपने ग्रहं भाव पर विजय पाता है और जन-जीवन का निकट से अध्ययन करता है । जब वह भिक्षा के लिए बिना भेद-भाव के घर-घर में पहुंचता है, तो उसे उस गांव, सुहल्ले या शहर के लोगों के रहन-सहन, आचार-विचार का पता लग जाता है। घरों को स्थिति का भी ज्ञान हो जाता है । वह जान लेता है कि कौन-सा घर आचार-निष्ठ है? किस घर में दुर्व्यसनों का सेवन होता है ? कौन घर आन्तरिक संघर्ष की आग में जल रहा है ? परिवार में कौन व्यक्ति अपने कत्तव्य से विमुख हो रहा है ? किस घर में नैतिकता, प्रमाणिकता की कमी है ? इत्यादि, जीवन के विकास और पतन की सभी बातों की सही जानकारी एवं उनके वास्तविक कारणों का पता घर-घर का परिचय होने पर ही लगता है और साधक को वह परिचय भिक्षा के द्वारा हा लग सकता है । क्योंकि विना किसी कारण के तो वह घर-घर नहीं फिरता । श्रागम में उसके लिए स्पष्ट आदेश है कि वह बिना कार्य किसी के घर में प्रवेश न करे । इसलिए भिक्षाचरी साधना के साथ मनुष्य के व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन का परिचय पाने का भी एक साधन है। इस से साधु सारी स्थिति का अध्ययन करके यथाशक्ति मानव जीवन में से उन बुराईयों को निकालने का प्रयत्न करता है । वह सदुपदेश की सरस-शीतल धारा बहा कर उसके शुष्क बीबन को हरा-भरा बनाने का प्रयास करता है । वह व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र के जीवन
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द्वादश अध्याय
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