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द्वादश अध्याय
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विराट् भावना का परिचायक है। ... . .. ... : ... भारतीय संकृति एवं पाश्चात्य संस्कृति तथा सभ्यता में महान् अन्तर है । पश्चिमी सभ्यता सिर्फ मानव जाति के भौतिक विकास को महत्त्व देती है और भारतीय सभ्यता मानव को अपने विकास के साथ दूसरे जीवों के अभ्युदय का ध्यान रखना भी सिखाती है । यही कारण है कि पश्चिम भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में इतना आगे बढ़ने पर भी मानव जीवन को सुखमय नहीं बना सका। आज संसार का हर मानव विज्ञान के भयानक साधनों-ऐटम आदि के विस्फोटक कारनामों से भयभीत है। अहिंसा की उदात्त भावना से शून्य विज्ञान आज मानव को विनाश के कगारे पर ले आया है। ऐसी भयंकर परिस्थिति में एक मात्र अहिंसा ही मानव जाति का संरक्षण कर सकती है। उसको अपना कर ही मानव-जाति को विनाश से वचाया जा सकता है । यह अहिंसा ही भारत की अपनी विशेषता रही है और आज भी इसी भगवती अहिंसा के कारण
भारत विश्व को शान्ति का सवक सिखा रहा है। .. भारतीय सभ्यता में भी जैनों ने अहिंसा पर अधिक बल दिया
है । मानव एवं बड़े-बड़े जीव-जन्तु का ही नहीं, छोटे से छोटे प्राणियों के प्राणों की सुरक्षा करने का ध्यान रखा है। विश्व के सभी जीवों के साथ दया एवं अहिंसा का व्यवहार करने के कारण ही वे विश्व वन्धुत्व या वात्सल्य की भावना को अपने जीवन में साकार रूप दे सके हैं। आज सन्त विनोवा ने जय गोपाल,जयराम, जयजिनेन्द्र,जयहिन्द आदि से ऊपर उठकर जय जगत का नारा दिया हैं,फिर भी उनके जय जगत के नारे में विश्व के मानवों की जय की भावना रही हुई है, वे विश्व के मानवों को एक परिवार के रूप में 'देखने का स्वप्न ले रहे हैं । परन्तु जैनों ने इस से भी आगे बढ़कर