________________
५३. ..
द्वादश अध्याय
immi
.
..
३.
"
...
.
शरीर से न मैथन सेवन करते हैं, न करवाते हैं और न करने वाले को अच्छा समझते हैं।
अाजकल ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री-पुरुष संसर्ग त्यांग किया . जाता है और इसी में ब्रह्मचर्य की पूर्णता मान ली जाती है। परन्तु - ऐसा नहीं है, ब्रह्मचर्य का अर्थ है सम्पूर्ण वासना से मुक्त होना । · भगवान अजित नाथ से लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त चार महावत ही थे,
ब्रह्मचर्य महावत का अपरिग्रह महावत में ही समावेश कर लिया
जाता था। ममता; मूर्छा. आसक्ति का नाम परिग्रह है. और इसका . नाम-ब्रह्मचर्य भी है । भोग सेवन करना भी प्रब्रह्मचर्य है और उन
भोगों की आसक्ति रखना भी अब्रह्मचर्य है । परन्तु अब्रह्मचर्य को प्रनग न करने से पीछे से साधुनों में दोष प्रवृत्ति की ओर झुकाव होने लगा। मर्यादा से अधिक रखे गए एक सामान्य से उपकरण के
दोष को और मैथुन सेवन के दोष को समान रूपता दी जाने लगी। - यह देख कर भगवान महावीर ने प्रब्रह्मचर्य को परिग्रह से अलग कर
के उस दोष से भी सर्वथा बचने की बात कही। इससे यह लाभ हुआ ... कि स्त्री पुरुष संसर्ग का त्याग किया जाने लगा, परन्तु आगे चल कर
इस में यह दोषं भी आ गया कि ब्रह्मचर्य का विस्तृत अर्थ भुला कर - उसे केवल स्त्री-पुरुष संसर्ग के परित्याग तक ही सीमित रखा गया।
- पागम को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्त्री-पुरुष का संसर्ग ही नहीं, पदार्थों के भोगोपभोग की वासना. तृष्णा भी अब्रह्मचर्य है। दशवकालिक सूत्र में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि "वस्त्र, गन्ध सुगन्धित पदार्थ अलकार-शृगार सामग्री स्त्री शय्या प्रादि का जो स्वतन्त्र
..:: साधु के लिए स्त्री शब्द का प्रयोग हुआ है, उसी तरह साध्वी के लिए __-पुरुष समझना चाहिए।::::.
...
::
FEE
..
.
.
.
..
.
..
.
.
.
....
.
:.
:".