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प्रश्नों के उत्तर
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कार्य से स्व और पर दोनों की आत्मा में अशांति एवं जलन बनी रहती है | अतः साधु सर्वथा चोरी का परित्याग करते हैं । वे मन से, वचन से और शरीर से न चोरी करते हैं, न दूसरे व्यक्ति के द्वारा
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चोरी करवाते हैं और न चोरी करने वाले
व्यक्ति को अच्छा ही
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समझते हैं। यहां तक कि यदि उन्हें एक तिनका या ककर भी आवश्यकतावश लेना होता है तो वह भी मांग कर लेते हैं, बिना आज्ञा के छोटी या बड़ी कोई वस्तु नहीं उठाते । यदि कहीं कोई व्यक्ति न मिल तो शकेन्द्र महाराज की आज्ञा ले कर तृण आदि ग्रहण करने और 'विहार के समय रास्ते मे विश्रांति करने के पूर्व या शौच जाते समय बैठने के लिए स्थान को आज्ञा भी * शकेन्द्र से लेने की परम्परा है । इस तरह साधु यत्र-तत्र सर्वत्र आज्ञा लेकर ही प्रत्येक वस्तु को स्वीकार करते हैं ।
ब्रह्मचर्य
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ब्रह्म+चर्य इन दो शब्दों के संयोग से ब्रह्मचर्य शब्द बना अतः ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ हुआ ब्रह्म में श्राचरण करना । ब्रह्म शब्द के श्रानन्दवर्धक, वेद, धर्म-शास्त्र, तप, मैथुन त्याग आदि अनेकों अर्थ होते हैं । परन्तु ब्रह्मचर्य का अर्थ मैथुन त्याग किया जाता रहा है । मैथुन- वासना, श्रात्मा को ब्रह्म-इश्वरीय भावना से दूर और दूरतर कर देती है, इसलिए काम वासना को दोष माना गया है और साधु के. लिए यह विधान है कि वह सर्वथा मैथुन का परित्याग करे। यह व्रत भी ९ कोटि से स्वीकार किया जाता है अर्थात् साधु मन, वचन और
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* शकेन्द्र महाराज ने सभी साधु-साध्वियों का जंगल मे या अन्यत्र कभी. कोई व्यक्ति न मिले तो उस समय तृण- काष्ठ आदि पदार्थ लेने की आज्ञा दी । देखो भगवती शतक १६ उद्दशा २