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प्रश्नों के उत्तर
ता से भोग नहीं कर सकता है, फिर भी अन्तर में उसकी लालसा, कामना, वासना रखता है तो वह त्यागी नहीं है । । इसी तरह उत्तराध्ययन के ३२वें अध्ययन में ब्रह्मचारी को प्रकाम-विकारोत्पादक सरस आहार करने का निषेध किया गया है | श्रमण सूत्र के पग्गायसज्झाए पाठ में उसे नर्म-सुकोमल शय्या के परित्याग की बात कही 'है। इसके सिवाय ब्रह्मचयं की नव बाड़ें भी इस सत्य को पूर्णतया प्रमाणित कर रही हैं । वे नव वाड़े इस प्रकार हैं
१ - साधु उस मकान में रात को न रहे जिस मकान में स्त्री, की नपुंसक और पशु रहते हो, २-साघु स्त्री की तथा साध्वी पुरुष विकारोत्पादक कथा न करे, ३ साधु जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो और साध्वी जिस स्थान पर पुरुष बैठा हो उस स्थान पर उसके उठने के बाद ४८ मिन्ट तक न बैठे, ४-साधु स्त्री के और साध्वी पुरुष के अंगोपांगों को विकारी दृष्टि से न देखे, ५-दीवार या पर्दे की ओट में स्त्री-पुरुष की विषय-वासना युक्त वातें न सुने, ६- पूर्व में भोगे हुए भोगों का चिन्तन-मनन न करे, ७- प्रति दिन सरस आहार न करें, मर्यादा या भूख से अधिक भोजन न करे और ९ शरीर को विभूषितशृंगारित न करे।
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इस से यह स्पष्ट हो गया कि केवल स्त्री-पुरुष संसर्ग ही प्रब्रह्मचर्य नहीं प्रत्युत भोगोपभोग जन्य सामग्री की वासना या आकांक्षा रखना भी अब्रह्मचर्य है । मैघ न या भब्रह्मचर्य का संबंध माह कर्म से है, मोहकर्म के उदय से ही आत्मा भोगों में ग्रासक्त होती और तृष्णा, अभिलाषा, आकांक्षा ये मोह के हो दूसरे नाम हैं, अत: समस्त वासनाओं पर विजय पाना ही साधुत्व या पूर्ण ब्रह्मचर्य को साधना है।
+ दशवालिक २, २