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प्रश्नों के उत्तर
यदि यांखें खुली हैं, पर पैरों में गति नहीं है तो मार्ग तय नहीं हो सकता । इसी तरह पैरों में तेज गति है, परन्तु प्रखि बन्द हैं या नहीं हैं तो भी वह गन्तव्य स्थान पर सही-सलामत नहीं पहुंच सकता । अस्तु, जैनों ने न अकेले ज्ञान पर जोर दिया और न अकेली क्रिया पर उन्होंने सम्यग् ज्ञान और सम्यग् आचरण क्रिया के समन्वित रूप को मुक्ति का मार्ग माना है ।
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यह तो हम पहले बता चुके हैं कि सम्यग ज्ञान के प्रभाव में स्थित चारित्र का कोई मूल्य नहीं है । ग्रतः जहां चारित्र का उल्लेख करें वहां सम्यग् ज्ञान को भी साथ समझें या सम्यग् ज्ञान पूर्वक चारित्र समझें । जैनागमों में चारित्र के, साधना के या धर्म के दो भेद किए हैं- अनगार धर्म और आगार धर्म । प्रांगार शब्द का अर्थ है- घर, परिवार श्रादि से युक्त उसके धर्म को आगार धर्म कहते हैं । इस धर्म के सम्बन्ध में पीछे वर्णन किया जा चुका है। अत + आगार अथवा जिसका घर-परिवार आदि से संबंध नहीं है, उसे अनगार कहते हैं और उसका धर्म अनगार धर्म कहलाता है । साधु, मुनि, यति, श्रमण. निर्ग्रन्थ, भिक्षु प्रादि नाम भी उसके पर्यायवाची हैं । वह पूर्णः त्यागो होता है । उसकी साधना पांच बातों से युक्त होती है- १-प्रहिंसा, २सत्य, ३-अस्तेय, ४-ब्रह्मचर्य और ५-अपरिग्रह । जैनागमों में इन्हें ५ महाव्रत कहा है । पातञ्जल योग दर्शन में ५ यम का तथा बौद्धशास्त्रों में पंचशील का उल्लेख मिलता है । अहिपा आदि महाव्रतों का अर्थसम्बन्धी चिन्तन इस प्रकार है
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“धम्मे दुबिड्डे पण्णते तंजहा - प्रणागार-धम्मे चैव श्रागार धम्मं
स्थानांग सूत्र, २/