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एकादश अध्याय
... परिग्रह--परिमाण अव्रत.. .. परिग्रह दो प्रकार का होता है- १-द्रव्य और २-भाव । धन
innin - नहीं जचता । प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने 'धर्म-विन्दु', ग्रन्थ में इसका अर्थ यह - किया है कि श्रावक या श्राविका ने व्रत स्वीकार करते समय पत्नी या पति . की जो मर्यादा रखी है, कालान्तर में उसका वियोग हो जाने पर भी वह उसके ... अतिरिक्त दूसरी स्त्री, या दूसरे पुरुष के साथ विवाह-संबंध न करे। यह अति
चार दूसरे का विवाह करवाने के अर्थ में नहीं, अपना दूसरा विवाह न करने के
अर्थ में है । और यह अर्थ व्रत स्वीकार करने की दृष्टि से उचित जचता है । - आचार्य श्री जवाहर लाल जी महाराज ने भी यही अर्थ किया है। (ब्रह्मचर्यव्रत
पृ. ११२)अस्तु,जैसे श्राविका को पति वियोंग हो जाने पर दूसरा विवाह नहीं . करन का सामाजिक एवं धार्मिक नियम है । उसी तरह श्रावक के लिए भी . . यह धार्मिक नियम है कि वह अपनी पत्नी का वियोग हो जाने पर दूसरा विवाह ... न करें। ...... .:.: 'परविवाहकरणे' चौथे व्रत का अतिचार है और अतिचार मात्र जानने योग्य होता, आचरण करने योग्य नहीं होता और न उसमें आगार-मर्यादा ही रखी जा सकती है । अत: पत्र-पुत्री आदि सम्बन्धियों के अतिरिक्त अन्य का 'विवाह न कराने की बात उचित प्रतीत नहीं होती। दूसरे का विवाह करवाना । .. अतिचार है, तो फिर श्रावक न अपनी सन्तान का विवाह कर सकता और न ।
दूसरे की सन्तान का ही। अतिचार अतिचार है,अतः उसमें अपने पराए का भेद नहीं किया जा सकता । अस्तु, दूसरे का विवाह-संबंध कराने से व्रत का भंग .
नहीं होता है। हां कुछ अन्य धी लोंग कन्यादान आदि कार्य को धर्म का कारण . - मानते हैं, अतः उक्त दोष से बचने के लिए दूसरे के विवाह-सम्बन्ध जोड़ने में . ..शामिल होना उचित नहीं है। परन्तु यह अतिचार नहीं है. । अतिचार की